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________________ प्रियव्रत माँगती हूँ। इलाज के लिए आप से पैसे लेकर मैं उन्हें शराब देती रही ! शराब उनकी मौत है । लेकिन मैं क्या करूँ ?" मैंने जाकर प्रियव्रत को सख्ती से डपटा। वह मुझे देखता रहा। कुछ देर सधे मेमने की तरह चुप-चुप सुनता रहा। सुनतेसुनते एकाएक उसने जोर से धमकी के स्वर में कहा कि मैं उसके सामने से दूर हो जाऊँ । जाऊँ, अभी चला जाऊँ। एक मिनिट उस घर में न ठहरू । श्राया हूँ उपदेश देने ! सारा उपदेश अपने पास रखू और मरने वाले को मरने दूं। कहा गया कि मुझ से जैसे लोग मरते-मरते भी आदमी को जरा चैन न लेने देंगे। आए हैं कहने कि शराब मत पियो ! अरे, किसी का कलेजा देखा है ? शराब से उसका घाव धुलता है । मुझ से बनने चलते हैं उपकारी, जैसे लाट साहब हों। वे क्या जानें शराब की खूबी ! पैसा हो गया, तो भलेमानस हो गए ! मैं रखू अपना पैसा अपने पास और जाऊँ, लाखों के सामने से इसी मिनिट में दूर हो जाऊँ। नहीं तो इस तरह प्रियव्रत कुछ-कुछ कहने लगा। दया ने ऐसे समय हाथ खींच कर, कन्धा हिलाकर, झिड़की देकर बहुत कुछ उसे वर्जन किया। लेकिन प्रतिरोध पर प्रियव्रत की अवशता और बढ़ पाती थी। ऐसे समय वह अपनी पत्नी को ही कहने लगता कि तू लम्पट है, दुराचारिणी है और मैं सब जानता हूँ। कोई अन्धा नहीं हूँ । तू इसे ( मुझे) चाहती है, हट, दूर हो, निकल बेहया। ऐसे समय कहनी-अनकहनी का प्रियव्रत को ध्यान नहीं रहता था। और मुझे बहुत दुःख था। खैर, बहुत कुछ सुनते रह कर मैने दया से कहा कि मैं अब जाता हूँ। तुम घबराना नहीं। प्रियव्रत ने चीख कर कहा, "हाँ, जाओ, जाओ, टलो। मैं किसी का मुहताज नहीं हूँ।"
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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