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________________ ६२ जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] क्या अर्थ होता होगा। मेरे चुप होने पर उसने कहा, "मैंने कविता लिखना बन्द कर दी है, तो क्या तुम यह कहना चाहते हो कि मेरी कविता बाहर न आने के कारण मुझे भीतर से खा रही होगी ? लेकिन मैं जानता हूँ कि मैं अपने से इस बात पर बिल्कुल नाराज नहीं हूँ। कविता बचपन है। उसमें सार नहीं मालूम होता।" ___ "लेकिन जिसमें सार मालूम होता है, ऐसा क्या है जो तुमने इस बीच किया है, वह तो मालूम हो ? कौन कहता है कि कविता ही अभिव्यक्ति है। बल्कि वह पूरी और सच्ची अभिव्यक्ति है भी नहीं । क्योंकि कावता अकर्मक होती है। कार्मिक अभिव्यक्ति भी साथ हो, तब चक्कर पूरा होता है । तो क्या इस बीच कर्म द्वारा अपनी आकांक्षाओं को तुमने मूर्त रूप दिया है ? वाणी से स्थूल कर्म है । और जो कर्म में स्वप्न को उतारता है, वह कवि से बड़ा कवि है । मैं सुनना चाहता हूँ कि यह तुमने किया है।" प्रियव्रत कुछ देर मानो सोचता रह गया। फिर बोला कि नहीं मैं तुम्हारी नहीं सुनना चाहता। अभिव्यक्ति जो व्यक्ति को समाज से जोड़ती है, व्यक्ति के लिए बन्धन भी है । समाज से अपने को अटका कर व्यक्ति पूर्ण नहीं हो सकता । वह पूर्ण है तो अपने ही में है, और जो पूर्ण है वह कृतकाम है। उसे कुछ व्यक्त करना नहीं है; क्योंकि कुछ पाना नहीं है। अभिव्यक्ति के भीतर है चाह । चाह यानी गरज । वह है बन्धन । बन्धनहीन अभिव्यक्तिहीन होगा। न मैं कुछ कहना चाहता हूँ, न कुछ करना चाहता हूँ। ___ मैंने कहना चाहा कि 'प्रियव्रत !' लेकिन आगे मैं कुछ न कह सका । उसे देखता-भर रह गया । युवाकाल के प्रारम्भ में प्रियव्रत को प्रतिभा से साहित्य-जगत् चमत्कृत हो पड़ा था। अभी तो उस यौवन का मध्याह्न भी नहीं है, फिर अभी से प्रियव्रत का यह क्या हाल है!
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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