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________________ प्रियव्रत अछूता मैं हूँ कहाँ ? और अगर समाज से अभिन्न हूँ तो कोई मेरी अभिव्यक्ति हो नहीं सकती जो समाज को न छूए, निरा अपना अलगाव रखे । उषा-दर्शन के समय मैं अकेला हूँ, दूसरा कोई पास नहीं है, तो क्या इतने पर मैं कह दूं कि उस समय की मेरी प्रसन्नता समाज से कोई सम्बन्ध नहीं रखती? वह कहना ठीक नहीं होगा। मेरा स्वास्थ्य समाज को चाहिए । इससे मेरी प्रसन्नता में समाज का हित है । अतः यदि मैं सामाजिक हूँ तो मेरी अभिव्यक्ति .निरी वैयक्तिक हो नहीं सकती। इसलिए 'सोशल' शब्द को अप्रयुक्त रख कर भी हम उसे सदा साथ समझ सकते हैं। सवाल यह है कि अभिव्यक्त चाहिए या नहीं ? मैं समझता हूँ कि अन्तर्भावनाओं को अभिव्यक्ति नहीं मिलेगी, यानी हम उन्हें अभिव्यक्ति नहीं देंगे, तो वे भावनाएँ हमारा बल नहीं बढ़ावेंगी, उल्टे हमें ही खाने लग जायँगी । या तो जियो, नहीं तो मरो। आदमी थिर होकर नहीं रह सकता । गति शर्त है । चढ़ता नहीं, तो उसे गिरना होगा। जगत् गतिशील है । चैतन्य प्रवाहमान है । हमारी अन्तरानुभूति या तो हमारे मूल व्यक्तित्व में अंगीकृत होकर आत्मगत होगी और हमारे परिवर्द्धन में सहायक होगी, नहीं तो भीतर वह एक शव की भाँति बैठ जायगी और प्रवाह में बाधा होगी। वह तब हमें भीतर से कुतरती रहेगी। अभिव्यक्ति का यही मतलब है। हम ऐसे अपनी ही अनुभूति को आत्मसात् करते हैं । उसे कल्पना में लाते हैं, विवेकमय बनाते हैं, व्यवहार में लाते हैं। ऐसा नहीं करते तो आज मन में उठा हुआ एक भाव हमारे भीतर ही व्यर्थ रूप से चक्कर लगाता और टकराता है। वह फिर हमारी राह में अवरोध बनता है । वाणी या कृत्य में वह भाव अभिव्यक्ति पाकर मानो मुक्ति भी पा लेता है। प्रियव्रत ध्यान से सब सुनता रहा। मुझे उसका वह तल्लीन चेहरा देखकर कभी-कभी मालूम होता था कि पुरुष-सौन्दर्य का
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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