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________________ प्रियव्रत उसने कहा कि क्या सुनूं ? लिखने की बात न करो । कुछ और बात करो । वह बचपन था। __ लेकिन मैं यह कैसे सहता? प्रियव्रत की साहित्यिक प्रतिभा से मैं परिचित था । लिखने से उसका विमुख होना दुर्घटना ही थी। यही बात मैंने कही। कहा कि अभिव्यक्ति आवश्यक है, और नहीं तो उससे चित्त ठीक रहता है। मन का रुकना त्रास है । लिखने से प्रवाह प्रवाहित रहता है। पर इस पर तो प्रियव्रत बहस पर उतारू हो आया। आँखों में चमक आ गई और चेहरे पर की मन्दता एक दम जाती रही । कहने लगा कि सुना था कि तुम दार्शनिक हो गए हो । यही तुम्हारा दर्शन है ? अभिव्यक्ति को जरूरत हो क्यों ? उस जरूरत का मतलब है कि श्रादमी आत्मतुष्ट नहीं है। असल में स्वतः में मग्न रहना चाहिए। मग्नता में फिर क्या अभिव्यक्ति, और किस के प्रति ? मुझे मग्नता और अभिव्यक्ति के रिश्ते से कुछ लेना नहीं था। पर प्रियव्रत को मैं छोड़ नहीं सकता था। मैंने कहा कि अपने में तो पूरा कोई नहीं है। बस यह भूल रहने से तो कोई अधूरा होने से नहीं बच सकता । अधूरा है इसीसे अभिव्यक्ति है । वही फिर व्यक्ति की निमग्नता की क्षमता बढ़ा देगी। प्रियव्रत ने जोर से कहा कि नहीं, नहीं. नहीं । जरूरत ही क्या कि मैं अपने भीतर को बाहर करूँ ? भीतर को भीतर मैं क्यों नहीं रख सकता ? व्यक्त करता हूँ तो मतलब है मुझसे सहा नहीं जाता । लेकिन मैं दुखी हूँ तो, सुखी हूँ तो, किसी को क्या पड़ी है कि मैं अपना सुःख-दुख दूसरे को पता लगने दूं? असंयम और किसका नाम है ? मुझे उसके शब्दों की ध्वनि पर निश्चिन्तता नहीं प्राप्त हुई। मैंने कहा कि मन का सुख-दुख और नहीं तो शरीर के स्वास्थ्य
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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