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जैनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग] महादेव शिवशंकर उस समय कैलाश के शिखर पर व्याघ्रचर्म पर आसीन ध्यानस्थ बैठे थे। उनकी आँख के नीचे बहुत दूर कन्दुकाकार पृथ्वी शनैः-शनैः अँधियारी पड़ती जा रही थी। उस बूंद-सी धरती के चारों ओर और नाना परिमाण और आकार की असंख्य कन्दुकाएँ, कुछ प्रकाशित, कुछ अँधेरी और बहुतेरी बाष्पमय, श्राल-जाल बना रही थीं। उनकी दृष्टि के तले समस्त शून्य में छाई वे छोटी बड़ी गेंदें मानों भ्रमित गति से एक दूसरे को लपेटती हुई फिर रही थीं। __ भगवान शंकर के नेत्र इस समय आधे मुंदे थे । वह अपनी लीला को देखकर मानों आप ही सम्भ्रमित हो रहे थे।
स्वामी की ऐसी हालत पार्वतीजी को नहीं भली लगती। उनसे अन्यत्र होकर यह जग का जगडवाल क्या है, जो स्वामी को अपने में फाँसेगा। वह भगवान् के पास गई । लेकिन भगवान् को अपने जगद्बोध से चेत नहीं हुआ। आधे ढंके और आधे व्यक्त, अविराम गतिभ्रम में चकराते हुए माया-पिंड-जाल में भगवान् मुक्त होकर भी मानों आबद्ध थे। ___ यह देखकर पार्वती जी कुढ़-कुढ़ कर रह गई। किन्तु भगवान् का तब भी मोह-भंग न हुआ। __इतने में ही दूरसे आती हुई एक इकतारे की तान सुन पड़ी। और उसके पीछे स्वयं ऋषि नारद वहाँ उपस्थित हुए।
नारद ऋषि ने भगवान को प्रणाम किया । भगवान् ने आशीदिपूर्वक ऋपि का कुशल-क्षेम पूछा । पूछा, “कहिए, नारद जी, आनन्द तो है ? अन्य पृथ्वी आदि ग्रहों का क्या हाल-चाल है ?"
नारद ने निवेदन किया, "भगवन् इस प्रवास में मैंने विशेष कर आपकी प्रिय पृथ्वी का परिपूर्ण परिभ्रमण किया। और वहाँ