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नारद का अर्ध्य
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सब ठीक है । किन्तु उस ग्रह के धरातल पर जिस मानव नामक जन्तु ने अभी हाल में जन्म लिया है, उस ही जन्तु की जाति कुछ शीघ्रता चाहती है। उन्हें अपने गति वेग पर तृप्ति नहीं है । वह नवीन मानव सृष्टि काल की चाल में वेग चाहती है ।"
भगवान् ने इस पर अपने वाम पार्श्व में देखा । तदनन्तर स्मित भाव से उन्होंने कहा, "नारद जी, पृथ्वी तो बहुत काल से अब इन (पार्वती) के संरक्षण में है। प्रिये, सुनो, नारद जी क्या कहते हैं ?"
देवी पार्वती ने भृकुटि निक्षेपपूर्वक अपनी अन्यमनस्कता जतलाई और व्यक्त किया कि नारदजी को जो कहना हो, कह सकते हैं।
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नारदजी ने कहा, "देवी महारानी, अपने शक्ति यन्त्रालय के कारीगरों को आज्ञा दीजिए कि वे पृथ्वी नामक कन्दुक की गति में कुछ तीव्रता का प्रक्षेपण दें । तब पृथ्वी पर प्राणियों में मूर्धन्य जो मनुष्य नामक जीव है, उसको सन्तोष होगा । महामाता, वह मनुष्य नामक प्राणी यद्यपि शरीर में सूक्ष्म और सामर्थ्य में अकिंचन है, फिर भी उसका अहंकार अपरम्पार है । भगवान् ने जो बुद्धि और तर्क का क्षुद्र अस्त्र कृपापूर्वक उसे जीवन-यापन के लिए दिया है, उससे वह मनुष्य नामक प्राणी अपने को मार लेने को तैयार हो गया है। इसलिए महारानी जी, उसकी इस मूर्ख इच्छा में उसकी सहायता करें | अन्यथा वह आत्मघात करके ब्रह्मविकास की भगवान् की आयोजना में विघ्नकारक होगी । "
देवी पार्वती ने विस्मय से कहा, "ऐसा है ? उस मनुष्य नामक कीट की उत्पत्ति की बात तो हमको बताई गई थी । क्या अब वही कीट ऐसी जल्दी पर पाकर मरना चाहता है ? वह कीड़ा कैसा है.