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जैनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग इसका बखान ऋषि नारद, आपसे फिर सुनूँगी। अभी तो आइए, देखें, पृथ्वी की गतिमें क्या बाधा पड़ी है।"
शक्ति-यन्त्रालय में यन्त्रों का अजब ताना-बाना पुरा था । सबकुछ चल रहा था और प्रत्येक की गति शेष सबकी गति से असम्बद्ध न थी । उस अनथक गतिमान् चक्रव्यूह में से न किसी को रोका जा सकता था, न ऋण किया जा सकता था, न किसी को समझा जा सकता था। सभी कुछ नीरव सतत चल रहा था । गति थी, फिर भी स्थिरता भी अखंड थी। और अति विस्मयजनेक विविधता के मध्य में ऐक्य प्रतिपालित था।
देवी पार्वती के साथ ऋषि नारद यन्त्रालय में उपस्थित होकर चकित रह गये। उन्होंने मन-ही-मन भगवान् का स्मरण किया
और उनकी महिमा का स्तवन किया। इस भक्ति-प्रणमन में ऋषि नारद की आँखें तनिक मुंद आई । अनन्तर जब उनकी आँख खुली, तब ऋषिने देखा कि महादेवी सती पावती धीरे-धीरे सावधानतापूर्वक विश्व-संचालन में उपस्थित हुई किसी अनजान अनपेक्षित बाधा की आहट टोहती हुई घूम-घूम कर यन्त्रालय का निरीक्षण कर रही हैं । अकस्मात् एक स्थल पर वह रुकी । उन्होंने वहीं झुक कर कान लगाकर मानों कुछ सुनना चाहा । जब माता का मुख ऊपर उठा तब नारदजी ने देखा, उस मुख पर किंचित चिन्ता की रेख उदय हो पाई है।
देवी पार्वती ने नारदजी को पास बुलाया। श्रातुरभाव पूछा, "ऋषिवर, यह पृथ्वी क्यों उड़ने के लिए रोती है ? उसः, क्या विश्वास कठिन हो गया है कि मैं उसे प्रेम करता हूँ ? यो मान्य, वह फिर क्या चाहती है ?"