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________________ नारद का अर्थ्य संध्या हो रही थी। उस समय दोनों भाई धनराज योर जनराज काम से हटकर घरकी ओर लौट कर चले । एक ने बलों का खोलकर आगे ले लिया, दूसरे ने हल सँभाला, और वे दोनों अपने परिश्रम के सुख में चूर, होनहार की ओर से निशंक, घर की और खेत की बातचीत करते हुए चले जा रहे थे। ___ घर आकर दोनों अपने-अपने काम में लग गये। एक बैलों को सहला कर दाना-पानी डालने लगा, दूसरा घर की देख-रेख में लग गया। उनका खेत अच्छा नाज देता था और भगवान् भी सदा उनके सहाई रहते थे। खेत के हरे-हरे पौधे बढ़कर जब बाल दे आते, तब वे परमात्मा का धन्यवाद मानते थे। और उसकी प्रकृति की इस लीला पर विस्मित हो-हो रहते थे कि एक बीज से सहस्रों दाने बन जाते हैं। उनका मन इस सबके रहस्य पर प्रकृति के अधिपति उस परमेश्वर का बहुत ऋणी हो आता था और तब दोनों भाई कृतज्ञता के आँसुओं से भरे एक दूसरे के लिए जीने और एक दूसरे के लिए मरने की लालसा से भीगे हो रहते थे। २१
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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