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भद्रबाहु
कोई स्थान दे सकें तो कृपा हो । मैंने यह भी कहा मेरे साथ की प्रवीणाएँ-नृत्य-वाद्य-कला में विशारद हैं। गुरु ने कहा, बहुत शुभ है । सन्ध्या-कीर्तन के समय ये सुन्दरियाँ नृत्य कर सकेंगी तो आश्रमवासी तृप्त होंगे। मैंने यहाँ के समान पराग परिधान में ही अप्सराओं को प्रस्तुत किया। उन्होंने भी वहाँ उल्लंग नृत्य का ठाठ वाँधा । भद्रबाहु विभोर भाव से सब देखते सुनते रहे । कीर्तन के अनन्तर उन्होंने मुझे कहा, 'ये गणिकाएँ तो नहीं हैं, राजन् ? भगचत् मूर्ति की ओर उनका ध्यान नहीं था, समुपस्थित नर-नारियों की ओर उनकी दृष्टि थी। क्या कीर्तन की मर्यादा का उन्हें ज्ञान नहीं है, राजपुत्र ?' मैंने कहा, 'श्रीमान् मैं युवराज हूँ। हम लोग राजसी हैं। क्या शुद्ध कला का यहाँ अवसर नहीं है ?' बोले, 'अवसर है । किन्तु कला भगवन् निमित्त है । कल सन्ध्या - कीर्तन में आप देखियेगा ।' अगले दिन कीर्तन में आश्रमवासी कुछ स्त्रीपुरुषों ने मिलकर नृत्य किया । अप्सराएँ वे न थीं, पर हम सब उन्हें देखते रह गये। मैं इस तरह एक पर एक दिन निकालता हुआ पूरा पक्ष भरा वहाँ रहा । भद्रबाहु में हम में से किसी से भय न था, न अरुचि थी। सच पूछिए तो इस कारण हम में ही किंचित् उनका भय हो आया । वहाँ हमने अपनी कोई आवश्यकता नहीं पाई । हमारे वहाँ रहते एक वसन्तोत्सव भी मनाया गया। मुझे आश्रम में अपने निमित्त का यह उत्सव देख कर विस्मय हुआ, किन्तु वहाँ किसी को इस अनुमान की आवश्यकता न हुई कि उस उत्सव में स्वयं ही व्यर्थ होता हुआ मदन देव उनके बीच कहीं हो सकता है ! मैं पूछता हूँ भगवन्, आपने मुझे ऐसी जगह क्यों भेजा, जहाँ मेरे प्रति कोई विरोध नहीं है कि उसे जय करूँ ।" इन्द्र सुनते रहे । बोले, "तुम रति को साथ नहीं ले गये ?” कामदेव, "जी, नहीं ले गया था ।"