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जैनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग] ___"वह अविचारणीय है, भगवन् ! उसे निस्पृह निरीह प्राणी सुनता हूँ। आस-पास उसके कहीं चमक नहीं दीखती । तेज सूक्ष्म भी हो भगवन्, मेरी दृष्टि से वह नहीं बचता। तेजोगर्व की एक विद्युत-रेखा को भी मैंने वहाँ नहीं पाया है । मनुष्यों की बुद्धि पर न जाइए, भगवन् ! वे तो पत्थर को भी पूजते हैं। भद्रवाहु में यदि कुछ होता तो भगवन्, मेरी दृष्टि से नहीं बच सकता था। वह तो स्थाणु है। और जैसा सुनता हूँ, तनिक भी व्यक्ति नहीं है । आप के मुंह से उसका नाम सुनता हूँ,इसकी ही मुझे लज्जा है, भगवन् !"
इन्द्र ने कहा, “कामदेव, तुम सब नहीं जानते हो। जाओ, भद्रबाहु से भेंट करके आओ और मुझे कहो।" ___ कामदेव सुनकर पृथ्वी पर गये और एक पक्ष के अनन्तर लौट कर इन्द्र को प्रणाम किया और कहा, "महाराज, मैं लौट आया हूँ। ये दिन मेरे व्यर्थ गये हैं।" ___ इन्द्र ने वृत्तान्त पूछा । तब कामदेव ने कहा, "मैं साथ सर्वश्रेष्ठ अप्सराओं को लेकर भद्रबाहु के आश्रम में गया था। वहाँ मुझे तपश्चर्या का कोई आभास प्राप्त नहीं हुआ। हम लोग पहले अलक्ष में ही रहे। वहाँ का वातावरण शुष्क नहीं था। आश्रम में महिलाएँ थीं, संगीत था, लता-पुष्प थे। ऋतुओं के विपय में भी हमें विशेष करना शेष न था। अन्त में मैं युवराज बना और अप्सराएँ परिचारिका बनीं, और इस रूप में हम लोगों ने प्रत्यक्ष होकर
आश्रम में प्रवेश किया। वहाँ किसी को हमारे प्रति विस्मय नहीं हुआ, न वितृष्णा हुई। भद्रबाहु के पास जाकर मैंने कहा कि हम
आमोद-प्रमोद के लिए वन में आये थे। सेवक लोग पीछे आने वाले थे। इतने में तूफान आ गया और हम भटक गये। अब हमारे अनुचरों का पता नहीं है। आश्रम में हम लोगों के योग्य