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भद्रबाहु
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नाओं के चक्र-व्यूह में है। वह मेरा चक्र आपकी कृपा से वहाँ सफलतापूर्वक चल रहा है।"
इन्द्र ने कहा, "मैं तुम्हारा कृतज्ञ हूँ, कामदेव ! लेकिन मानव में महत्-कामना मुझे प्रिय नहीं है। तुम अकेले जाकर मनुष्य में महत्-कामना की सम्भावना को भी जगा देते हो, इससे रति को साथ ले जाया करो।"
कामदेव ने आश्चर्य से कहा, "हमारी कन्दर्प-सेना में एक-सेएक बढ़कर जो अप्सराएँ हैं, उन पर क्या श्रीमान् का भरोसा नहीं है ?"
इन्द्र ने हँसकर कहा, "वह वाहिनी तो स्वर्ग की विजय-पताका है । किन्तु चित्त की अशान्ति शक्ति को भी जन्म देती है, कामदेव । अप्सराएँ घोर आकाँक्षा पैदा करके जो मनुष्य को अशान्त छोड़ती हैं; उससे स्वर्ग को खतरा बना रहता है। पृथ्वी के लोगों को घर और परिवार देकर किश्चित् शान्त रखना होगा। नहीं तो उहीप्त अकाँक्षा अतृप्ति में से निकलकर कठोर तपश्चर्या का रूप जब लेगी तब हमारा आसन डिगे बिना न रहेगा। समझते हो न, कामदेव ?-ऊर्ध्वबाहु का क्या हाल है ?" ___कामदेव ने हँसकर कहा, "टूटकर वह मरम्मत के लिए गया था। अब साबित होकर फिर उत्पात-साधना की तैयारी में उसे सुनता हूँ, देव !" ___ इन्द्र, “टूटे हुओं को जोड़ने का काम कौन करता है, कामदेव ?" ___ "ऊर्ध्वबाहु गुरु भद्रबाहु के आश्रम से पुनः साहस और स्वास्थ्य लेकर लौटा है, यह सुनता हूँ, महाराज!"
"भद्रबाहु से भेंट की है तुमने, कामदेव ?"