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जनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग] इन्द्र ने कहा, “कामदेव, विरोध है वहीं तुम्हारी जय है । स्वीकृति है वहाँ तुम्हारा मार्ग अवरुद्ध है । इसी से कहता हूँ कि रति को साथ ले जाना था, लेकिन अब क्या होगा ?" _____कामदेव ने कहा, "स्वर्ग-राज्य को भद्रबाहु की ओर से कोई चिन्ता नहीं होनी चाहिये, भगवन् ।”
इन्द्र ने कहा, "चिन्ता तो है ही कामदेव! पर तुम नहीं जानते। तुम जाओ।"
कामदेव के जाने के अनन्तर इन्द्र कुछ विचार में पड़ गये। स्वर्ग में एक यही वस्तु निषिद्ध है, विचार । शची ने स्वामी के मस्तक पर रेखाएँ देखीं और नेत्र निम्न देखे तो कहा, "क्या सोच है, नाथ ?" — इन्द्र ने कहा, "कुछ नहीं शुभे, मुझे नारद जी के पास जाना है।"
शची ने कहा, "आर्य, नारदजी का वास कहीं है भी जो तुम जाओगे? तुमको श्राज यह क्या हो गया है ? विचार तो यहाँ वर्जित है। तुम यहाँ के अधिपति होकर स्वयं स्वर्ग-नियम का उल्लङ्घन करोगे ? याद नहीं है क्या कि नारद कहीं एक जगह नहीं रहते और वे सदा स्वयं ही आते हैं, कोई उनके पास नहीं जाता ?"
इन्द्र ने कहा, "ठीक है शुभे, मुझ में विकार आया है।" “किन्तु विकार का कारण ?"
"सदा सबका कारण पृथ्वी है, शची ! उस पर का मनुष्य हमें चैन नहीं लेने देता है।"
शची, "इस बार क्या हुआ है ? अनेकानेक ऋद्धिधारियों की देव-सेना जो तुम्हारे पास है। उसके रहते तुम्हें किस विचार की आवश्यकता है, देव ?"