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जैनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग] के पास से वह फिर नया संकल्प और नया स्वास्थ्य लेकर ब्रह्म की चर्या में जुट पड़ा है ? इस बार तेरी खैर नहीं है, रे इन्द्र !"
इन्द्र, “महाराज, मुझे क्या करना चाहिये ?"
नारद, "करना चाहिये यह कि पत्ते-पत्ते से लड़ और जड़ को मत छू । क्यों रे, मुझ से पूछता है क्या करना चाहिये ?"
इन्द्र ने विनत भाव से कहा, "देवर्षि, हम देवताओं को आप ही सरीखे महात्माओं के आदेश का भरोसा है।"
नारद बोले, "इसमें आदेश की क्या बात है ? फल से वैर करता है और जड़ को सुरक्षित रखता है ! फिर अपनी खैर भी चाहता है ?"
इन्द्र ने कहा, “महाराज, आज्ञा करें, उसी का पालन होगा।"
नारद, "सुन रे इन्द्र, वह ऊर्ध्वबाहु प्रार्थी होकर फिर गुरु भद्रबाहु के पास गया । कहा-'हे गुरुवर, इन्द्र की माया ने मेरी साधना भङ्ग की है। आपके पास आया हूँ कि वह मन्त्र दें कि तप अखण्ड और अमोघ हो ।' जानता है रे, भद्रबाहु ने क्या किया ?"
"नहीं, महाराज !"
नारद, "स्वर्ग का अधिपति तो क्या तू केलि-क्रीड़ा के लिये ही बन बैठा है ? ऊर्ध्वबाहु पर गुरु की कृपा न थी, पर इस बार उन्होंने उसे सिद्ध-मन्त्र दिया है, रे असावधान?"
इन्द्र ने कहा, "ऊर्ध्वबाहु के मन में तो महाराज, स्पर्धा है। स्पर्धा में तो साधना की सिद्धि का विधान नहीं है, महाराज !"
नारद, “सिद्धि नहीं तो ऋद्धि का तो विधान है, रे जड़ ! सिद्धि को तू क्या जानता ? पर ऋद्धि का तुझे भय नहीं है रे, सच कह।"
इन्द्र, "वही भय है, महाराज !"