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भद्रबाहु
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सौधर्म ने कहा, "महाराज, क्या वसुन्धरा पर ऐसा पुरुष कोई विद्यमान है जिसमें कामनाएँ नहीं हैं ?"
इन्द्र ने कहा, “सौधर्म, मनुष्य जाति की ओर से मुझे खटका बना ही रहता है । हम देवताओं को भगवान् की ऋद्धियाँ प्राप्त हैं, फिर भी उनका अनन्य प्रेम प्राप्त नहीं हैं । हम प्रकृति के साथ समरस हैं। गम्भीर द्वन्द्व की पीड़ा हम में नहीं है । इससे पाप और प्रयत्न- पुरुषार्थ भी हममें नहीं है । मनुष्य निम्न है, इसी से भगवान् में अभिन्नता पाता है। सौधर्म, तुम कैसे जानोगे ? स्वर्ग का अधिपति होकर मेरे लिये यह कैसी लांछना की बात है कि नर-तन-धारी हम ऋद्धि-धारियों को बीच में उल्लंघन करके प्रभु तक पहुँच जायँ। इससे बड़ी अकृतकार्यता और हमारी क्या हो सकती है ? मनुष्य पामर है, क्षुद्र है, स्वल्प है। हम देवता मनोगति की भाँति अमोघ हैं । फिर भी मनुष्य हमारे वश रहते हमें उल्लंघित कर जाय, यह हमें कैसे सहन हो ?”
सौधर्म ने कहा, "महाराज, आपका रोष उस पदार्थ मानव की महत्ता बढ़ाता है । वह क्या इसके योग्य है ?"
इन्द्रसुनकर चुप रह गये । पर किसी श्रासन्न संकट का संशय उनके मन से दूर नहीं हुआ ।
एक रोज़ नारदजी ने आकर उन्हें चेताया, कहा, "अरे इन्द्र, तू कैसा स्वर्ग का राज्य करता है ? स्वर्ग को हाथ से छिनाने की इच्छा है क्या ?"
इन्द्र ने सादर पूछा, "क्या महाराज,..."
नारद, 'क्या महाराज करता है ! अरे, ऊर्ध्वबाहु को धराशायी करके तेरा काम मिट जाता है क्या ? मालूम नहीं ! भद्रबाहु