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जैनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग] बालक के मुंह पर से स्मित-हास की आभा मिटने लगी और शरीर गलने लगा, तब हठात् साँप भी वहाँ से हटा । ___ उस समय उसने प्रार्थना की कि हे भगवान् ! मेरा जहर मुझ में से तू निकाल ले। मैं किसी का अनिष्ट करना नहीं चाहता हूँ। मुझे गुस्सा जरा भी आ जाता है, तब मैं अपने को भूल जाता हूँ। मैं क्या करूँ, किसी की जान लेने की मेरी इच्छा कभी नहीं होती, लेकिन मेरा जरा दाँत लगता है कि उसकी जान चली जाती है। हे भगवान् , तू मेरे जहर के दाँत निकाल ले। ___ साँप की प्रार्थना सुनकर भगवान ने उस वन में एक सँपेरा भेज दिया। उसने जब बीन बजाई, तब साँप सम्मुख आकर फन खोलकर खड़ा हो गया। वह फन हिला-हिलाकर उस बीन की मीठी पुकार पर अपने को दे डालने की इच्छा करता हुआ, मानों पकड़े जाने की प्रतीक्षा में मुग्ध हो रहा । ___ सँपेरा बहुत खुश था। उसने ऐसा सुन्दर, ऐसा बड़ा, ऐसा बलिष्ठ और ऐसा तेजस्वी साँप कभी नहीं देखा था। . बीन की बैन में उसे लुभा कर धीरे-धीरे सँपेरे ने साँप को पकड़ कर अपने वश में कर लिया। तब उसने साँप के जहर के दाँत खींच निकाले। ..
साँप ने अनुमतिपूर्वक दाँत निकलवा दिए। लेकिन, उसकी वेदना में एक बार वह मूञ्छित हो गया। ___ उसी मूच्छित अवस्था में साँप को अपनी पिटारी में रखकर सँपेरा नगर को चल पड़ा। ___ साँप की मूर्छा जब टूटी तब उसने देखा कि उसका वन कहीं नहीं है। वहाँ तो अन्धेरा ही चारों ओर से घिरकर बन्द होता आया
गया।