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वह सांप है। उसने सरक-सरक कर देखा कि चारों ओर उसके रुकावट है
और खेलने के लिए कहीं भी निकलने को मार्ग नहीं है। . . ___ पहले तो उसने इधर-उधर फन मारे, जैसे विष निकलने के साथ-साथ उसमें से तेज भी निकल गया था। उसने कहा, "हे भगवान् ! यह क्या है ? तुम्हारा दिया हुआ विष मैंने स्वीकार न करके तुमसे प्रार्थना की कि तुम उसे मुझमें से लौटा लो, सो क्या उसी का यह दंड मुझे मिला है कि विष के साथ मेरी सामर्थ्य भी मुझमें से खिंच जाय ? हे भगवान् ! यह क्या है ?" __ अगले दिन बहँगी पर टाँग कर सँपेरा नगर में साँप का तमाशा दिखाने को चला। साँप के घर पर से जो ढकना खुला तो उसने प्रसन्नता से सिर ऊपर उठाया; किन्तु बाहर बीन बज रही थी; इसलिए उसका उठा हुआ फन हिल ही कर रह गया और प्रसन्नता अपने शैशव में ही मुग्ध हो पड़ी।
जब उसको बाहर निकाला गया, तो वह यह देखकर चकित हो गया कि चारों ओर से उसे घेर कर बहुत से तमाशाई लोग खड़े हैं। विस्मय के बाद इस पर उसका मन क्रोध से भर आया। उसने जोर से फुफकार मारी, फन फैलाया और क्रुद्ध आँखों से चारों
ओर देखा। __उसकी इस चेष्टा पर चारों ओर खड़े लोगों में से कुछ बच्चे तो चाहे डरे हों, पर सबको इसमें कुतूहल ही मालूम हुआ। यह देखकर साँप ने धरती पर पटककर अपने फन को और भी चौड़ा कर ऊँचा उठाया, और, और जोर की सिसकारी छोड़ी।
किन्तु दर्शकों का कुतूहल इससे कुछ और बढ़ कर ही रह गया, आतंक उनमें तनिक न उपजा।
साँप ने देखा कि उसकी तेजस्विता का तनिक भी सम्मान