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तत्सत्
प्रमुख पुरुष ने कहा, "यह सब-कुछ ही जंगल है।"
इस पर गुस्से में भरे हुए कई वनचरों ने कहा, "बात से बचो नहीं । ठीक बताओ, नहीं तो तुम्हारी खैर नहीं है।" ___ अब आदमी क्या कहें, परिस्थिति देखकर वे बेचारे जान से निराश होने लगे। अपनी मानवी बोली में (अव तक प्राकृतिक बोली में बोल रहे थे ) एक ने कहा, "यार, कह क्यों नहीं देते कि जंगल नहीं है । देखते नहीं, किन से पाला पड़ा है !"
दूसरे ने कहा, “मुझ से तो कहा नहीं जायगा।" "तो क्या मरोगे?"
"सदा कौन जिया है । इससे इन भोले प्राणियों को भुलावे में कैसे रखू।"
यह कहकर प्रमुख पुरुप ने सबसे कहा, "भाइयो, जंगल कहीं दूर या बाहर नहीं है । श्राप लोग सभी वह हो।"
इस पर फिर गोलियों से सवालों की बौछार उन पर पड़ने लगी। "क्या कहा ? मैं जंगल हूँ ? तब बबूल कौन है ?"
"झूठ ! क्या मैं यह मानूं कि मैं बाँस नहीं जंगल हूँ। मेरा रोम-रोम कहता है, मैं बाँस हूँ।"
"और मैं घास ?" "और मैं शेर ।" "और मैं साँप ।”
इस भाँति ऐसा शोर मचा कि उन बेचारे आदमियों की अकल गुम होने को आ गई । बड़ दादा न हों, तो श्रादमियों का काम वहाँ तमाम था।
उस समय आदमी और बड़ दादा में कुछ ऐसी धीमी-धीमी बातचीत हुई कि वह कोई सुन नहीं सका। बातचीत के बाद यह