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३२ जैनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग हो । डरो मत । अब यह बताओ कि वह जंगल क्या है जिसकी तुम बात किया करते हो ? बताओ वह कहां है।"
आदमियों ने अभय पाकर अपनी बन्दूकें नीची कर ली और कहा, “यह जंगल ही तो है जहाँ हम सब हैं।" ___ उनका इतना कहना था कि चींची-कींकी सवाल-पर-सवाल होने लगे।
"जंगल यहाँ कहाँ है ? कहीं नहीं है।"
"तुम हो। मैं हूँ। यह है। वह है। जंगल फिर हो कहाँ सकता है।"
"तुम भूठे हो।" "धोखेबान !" "स्वार्थी !" "खतम करो इनको।"
आदमी यह देखकर डर आये। बन्दूकें सम्भालना चाहते थे कि बड़ दादा ने मामला सम्भाला और पूछो. "सुनो आदमियो, तुम भूठे साबित होगे तभी तुम्हें मारा जायगा। क्या यह आगफेंकनी लिये फिरते हो। तुम्हारी बोटी का पता न मिलेगा। और अगर झूठे नहीं हो, तो बताओ, जंगल कहाँ है ?"
उन दोनों आदमियों में से प्रमुख ने विस्मय से और भय से कहा, "हम सब जहाँ हैं वहीं तो जंगल है।"
बबूल ने अपने काँटे खड़े करके कहा, "बको मत, वह सेमर है, वह सिरस है, साल है, वह घास है । वह हमारे सिंहराज हैं। वह पानी है। वह धरती है। तुम जिनकी छाँह में हो वह हमारे बड़ दादा हैं। तब तुम्हारा जंगल कहाँ है, दिखाते क्यों नहीं ? तुम हमको धोखा नहीं दे सकते।"