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तत्सत्
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वाला आदमी ईमानदार जीव नहीं है। उसने तभी वन की बात बनाकर कह दी है । वह बन गया है। सच में वह नहीं है ।
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उस निश्चय के समय बड़ दादा ने कहा कि भाइयो, उन आदमियों को फिर आने दो। इस बार साफ-साफ उन से पूछना है कि बताएँ, वन क्या है । बताएँ तो बताएँ, नहीं तो ख्वाहम-ख्वाह झूठ बोलना छोड़ दें। लेकिन उनसे पूछने से पहले उस वन से दुश्मनी ठानना हमारे लिये ठीक नहीं है । वह भयावना सुनते हैं । जाने वह और क्या हो ?
लेकिन बड़ दादा की वहाँ विशेष चली नहीं। जवानों ने कहा कि ये बूढ़े हैं, उनके मन में तो डर बैठा है। और जंगल के न होने का फैसला पास हो गया ।
एक रोज आफ़त के मारे फिर वे शिकारी उस जगह आए । उनका आना था कि जंगल जाग उठा । बहुत-से जीव-जन्तु झाड़ीपेड़ तरह-तरह की बोली बोल कर अपना विरोध दरसाने लगे । वे मानो उन आदमियों की भर्त्सना कर रहे थे । आदमी बिचारों को अपनी जान का संकट मालूम होने लगा। उन्होंने अपनी बन्दूकें सम्भालीं । इस टूटी-सी टहनी को, जो आग उगलती है, वह बड़ दादा पहचानते थे। उन्होंने बीच में पड़कर कहा, "अरे, तुम लोग
धीर क्यों होते हो । इन आदमियों के खतम हो जाने से हमारा तुम्हारा फैसला निभ्रम नहीं कहलायेगा। जरा तो ठहरो । गुस्से से कहीं ज्ञान हासिल होता है ? ठहरो, इन आदमियों से उस सवाल पर मैं खुद निपटारा किये लेता हूँ।” यह कहकर बढ़ढ़ दादा आदमियों को मुखातिब करके बोले, “भाई आदमियो, तुम भी इन पोली चीजों का नीचा मुँह करके रखो जिनमें तुम आग भर कर लाते