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जैनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग साँप ने साश्चर्य कहा, "किसका वास ? वह कौन जन्तु है ? और उसका वास पाताल तक तो कहीं है. नहीं।"
बड़ दादा ने कहा कि हम कोई उसके सम्बन्ध में कुछ नहीं जानते। तुम से जानने की आशा रखते हैं । जहाँ जरा छिद्र हो वहां तुम्हारा प्रवेश है। कोई टेढ़ा-मेढ़ापन तुम से बाहर नहीं है। इससे तुम से पूछा है। ___ साँप ने कहा, "मैं धरती के सारे गर्त्त जानता हूँ। भीतर दूर तक पैठ कर उसी के अन्तर्भेद को पहचानने में लगा रहता हूँ । वहाँ ज्ञान की खान है। तुमको अब क्या बताऊँ। तुम नहीं समझोगे । तुम्हारा वन, लेकिन कोई गहराई की सचाई नहीं जान पड़ती। वह कोई बनावटी सतह की चीज़ है। मेरा वैसी ऊपरी और उथली बातों से वास्ता नहीं रहता।"
बड़ दादा ने कहना चाहा कि तो वनसांप ने कहा, "वह फर्जी है ।" यह कह कर वह आगे बढ़ गये।
मतलब यह है कि सब जीव-जन्तु और पेड़-पौधे आपस में मिले और पूछताछ करने लगे कि वन को कौन जानता है और वह कहाँ है, क्या है ? उनमें सब को ही अपना-अपना ज्ञान था । अज्ञानी कोई नहीं था। पर उस वन का जानकार कोई नहीं था । एक नहीं जाने, दो नहीं जानें, दस-बीस नहीं जानें । लेकिन जिस को कोई भी नहीं जानता ऐसी भी भला कोई चीज़ कभी हुई है या हो सकती है ? इसलिये उन जंगली जन्तुओं में और वनस्पतियों में खूब चर्चा हुई, खूब चर्चा हुई। दूर-दूर तक उसकी तू-तू-मैं-मैं सुनाई देती थी। ऐसी चर्चा हुई, ऐसी चर्चा हुई कि विद्याओं-परविद्याएँ उसमें से प्रस्तुत हो गई। अन्त में तय पाया कि दो टाँगों