________________
तत्सत्
२६
शेर ने कहा कि जो मैं कहता हूँ वही सच है । उसमें शक करने की हिम्मत ठीक नहीं है। जब तक मैं हूँ, कोई डर न करो। कैसा साँप और कैसा कुछ और। क्या कोई मुझसे ज्यादा जानता है ?
बड़ दादा यह सुनते हुए अपनी डाढ़ी की जटाएँ नीचे लटकाए बैठे रह गए, कुछ नहीं बोले । औरों ने भी कुछ नहीं कहा। बबूल के काँटे जरूर उस वक्त तनकर कुछ उठ आये थे । लेकिन फिर भी बबूल ने धीरज नहीं छोड़ा और मुँह नहीं खोला ।
अन्त में जम्हाई लेकर मंथर गति से सिंह वहाँ से चले गये । भाग्य की बात कि सांझ का झुटपुटा होते-होते चुप-चाप घास में से जाते हुए दीख गये चमकीली देह के नागराज । बबूल की निगाह तीखी थी । झट से बोला, “दादा ! ओ व दादा; वह जा रहे हैं सर्पराज । ज्ञानी जीव हैं। मेरा तो मुँह उनके सामने कैसे खुल सकता है। आप पूछो तो जरा कि वन का ठौर-ठिकाना क्या उन्होंने देखा है ।"
बड़ दादा शाम से ही मौन हो रहते हैं । यह उनकी पुरानी आदत है । बोले, "संध्या आ रही है। इस समय वाचालता नहीं चाहिए ।"
बबूल झक्की ठहरे । बोले, "बड़ दादा, साँप धरती से इतना चिपट कर रहते हैं कि सौभाग्य से हमारी आँखें उन पर पड़ती हैं । और यह सर्प अतिशय श्याम हैं इससे उतने ही ज्ञानी होंगे । वर्ण देखिये न, कैसा चमकता है। अवसर खोना नहीं चाहिए। इनसे कुछ रहस्य पा लेना चाहिये ।"
बड़ दादा ने तब गम्भीर वाणी से साँप का रोक कर पूछा कि हे नाग, हमें बताओ कि वन का वास कहाँ है और वह स्वयं क्या है ?