________________
जैनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग] पुरुप उस विशाल बड़ के वृक्ष के ऊपर चढ़ता दिखाई दिया। चढ़तेचढ़ते वह उसकी सबसे ऊपर की फुनगी तक पहुँच गया। वहाँ दो नये-नये पत्तों की जोड़ी खुले आसमान की तरफ मुस्कराती हुई देख रही थी। आदमी ने उन दोनों को बड़े प्रेम से पुचकारा। पुचकारते समय ऐसा मालूम हुआ जैसा मन्त्र-रूप में उन्हें कुछ सन्देश भी दिया है।
वन के प्राणी यह सब-कुछ स्तब्ध भाव से हुए देख रहे थे। उन्हें कुछ समझ में न आ रहा था।
देखते-देखते पत्तों की वह जोड़ी उग्रीव हुई। मानो उनमें चैतन्य भर आया। उन्होंने अपने आस-पास और नीचे देखा । जाने उन्हें क्या दिखा, कि वे काँपने लगे। उनके तन में लालिमा व्याप गई। कुछ क्षण बाद मानो वे एक चमक से चमक आये । जैसे उन्होंने खण्ड को कुल में देख लिया। देख लिया कि कुल है, खण्ड कहाँ है।
वह आदमी अब नीचे उतर आया था और अन्य वनचरों के समकक्ष खड़ा था। बड़ दादा ऐसे स्थिर-शान्त थे, मानो योगमग्न हों कि सहसा उनकी समाधि टूटी। वे जागे। मानो उन्हें अपने चरमशीर्ष से, अभ्यन्तरादभ्यन्तर में से, तभी कोई अनुभूति प्राप्त हुई हो।
उस समय सब ओर सप्रश्न मौन व्याप्त था। उसे भङ्ग करते हुए बड़ दादा ने कहा
"वह है।"
कहकर वह चुप हो गए। साथियों ने दादा को सम्बोधित करते हुए कहा, "दादा, दादा !"......
दादा ने इतना ही कहा