________________
जनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग] उधर बहती रहती है; मैं खोखला जो हूँ। मैं बोलता नहीं, बजता हूँ। वही मुझमें से बोलती है।"
बड़ ने कहा, "वंश बाबू, तुम घने नहीं हो, सीधे-ही-सीधे हो। कुछ भरे होते तो झुकना जानते । लम्बाई में सब-कुछ नहीं है।"
वंश बाबू ने तीव्रता से खड़-खड़ सन्-सन् किया कि ऐसा अपमान वह नहीं सहेंगे । देखो वह कितने ऊँचे हैं ! ___ बड़ दादा ने उधर से आँख हटाकर फिर और लोगों से कहा कि हम सब को घास से इस विषय में पूछना चाहिए। उसकी पहुँच सब कहीं है । वह कितनी व्याप्त है । और ऐसी बिछी रहती है कि किसी को उससे शिकायत नहीं होती।
तब सबने घास से पूछा, “घास री घास, तू वन को जानती
__घास ने कहा, "नहीं तो दादा, मैं उन्हें नहीं जानती। लोगों की जड़ों को ही में जानती हूँ। उनके फल मुझ से ऊँचे रहते हैं । पदतल के स्पर्श से सब का परिचय मुझे मिलता है । जब मेरे सिर पर चोट ज्यादा पड़ती है, समझती हूँ यह ताकत का प्रमाण है । धीमे कदम से मालूम होता है यह कोई दुखियारा जा रहा है ।
ख से मेरी बहुत बनती है, दादा ! मैं उसी को चाहती हुई यहाँ से यहाँ तक बिछी रहती हूँ। सभी कुछ मेरे ऊपर से निकलता है। पर वन को मैंने अलग करके कभी नहीं पहचाना ।"
दादा ने कहा, "तुम कुछ नहीं बतला सकती ?" घास ने कहा, "मैं बेचारी क्या बतला सकती हूँ, दादा !"
तब बड़ी कठिनाई हुई। बुद्धिमती घास ने जवाब दे दिया। वाग्मी वंश बाबू भी कुछ न बता सके ।और बड़ दादा स्वयं अत्यन्त