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________________ तत्सत् २७ जिज्ञासु थे। किसी की समझ में नहीं आया कि वन नाम के भयानक जन्तु को कहाँ से कैसे जाना जाय। __इतने में पशुराज सिंह वहाँ श्राये। पैने दाँत थे, बालों से गर्दन शोभित थी, पूँछ उठी थी। धीमी गर्वीली गति से वह वहाँ आये और किलक-किलक कर बहते जाते हुए निकट के एक चश्मे में से पानी पोने लगे। बड़ दादा ने पुकार कर कहा, "ओ सिंह भाई, तुम बड़े पराक्रमी हो । जाने कहाँ-कहाँ छापा मारते हो। एक बात तो बताओ, भाई!" शेर ने पानी पीकर गर्व से ऊपर को देखा। दहाड़ कर कहा, “कहो क्या कहते हो ?" ___ बड़ दादा ने कहा, "हमने सुना है कि कोई वन होता है, जो यहाँ आस-पास है और बड़ा भयानक है। हम तो समझते थे कि तुम सबको जीत चुके हो। उस वन से कभी तुम्हारा मुकाबिला हुआ है ? बताओ वह कैसा होता है ?" शेर ने दहाड़ कर कहा, "लामो सामने वह वन, जो अभी मैं उसे फाड़ चीर कर न रख दूं। मेरे सामने वह भला क्या हो सकता है ?" बड़ दादा ने कहा, "तो वन से कभी तुम्हारा सामना नहीं हुआ ?" शेर ने कहा, "सामना होता तो क्या वह जीता बच सकता था । मैं अभी दहाड़ देता हूँ। हो अगर कोई वन, तो आये वह सामने । खुली चुनौती है । या वह है या मैं हूँ।" ऐसा कहकर उस वीर सिंह ने वह तुमुल घोर गर्जन किया कि दिशाएँ काँपने लगीं । बड़ दादा के देह के पत्र खड़-खड़ करने लगे। उनके शरीर के कोटर में वास करते हुए शावक ची-चों कर उठे।
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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