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तत्सत्
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पास काँटे रखता हूँ । पर वे अादमी वन को भयावना बताते थे। जरूर वह शेर चीतों से बढ़कर होगा।"
दादा, “सो तो होता ही होगा। आदमी एक टूटी-सी टहनी से आग की लपट छोड़कर शेर-चीतों को मार देता है। उन्हें ऐसे मरते अपने सामने हमने देखा है । पर वन की लाश हमने नहीं देखी। वह जरूर कोई बड़ा खौफनाक होगा।"
इसी तरह उनमें बातें होने लगीं। वन को उनमें से कोई नहीं जानता था । आस-पास के और पेड़ साल, सेंमर, सिरस उस बातचीत में हिस्सा लेने लगे। वन को कोई मानना नहीं चाहता था। किसी को उसका कुछ पता नहीं था। पर अज्ञात भाव से उसका डर सब को थो। इतने में पास ही जो बाँस खड़ा था और जो जरा हवा पर खड़-खड़ सन्-सन् करने लगता था, उसने अपनी जगह से ही सीटी-सी आवाज देकर कहा, "मुझे बताओ, मुझे बताओ क्या बात है । मैं पोला हूँ। मैं बहुत जानता हूँ।" __ बड़ दादा ने गम्भीर वाणी से कहा, "तुम तीखा बोलते हो। बात है कि बताओ तुमने वन देखा है ? हम लोग सब उसको जानना चाहते हैं।"
बाँस ने रीती आवाज से कहा, "मालूम होता है हवा मेरे भीतर के रिक्त में वन-वन-वन-बन ही कहती हुई घूमती रहती है। पर ठहरती नहीं। हर घड़ी सुनता हूँ, वन है। पर मैं उसे जानता नहीं हूँ। क्या वह किसी को दीखा है।"
बड़ दादा ने कहा, "बिना जाने फिर तुम इतना तेज क्यों बोलते हो ?
बाँस ने सन्-सन् की ध्वनि में कहा, "मेरे अन्दर हवा इधर से