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जैनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग ]
चलते कैसे हैं ? अपने तने की दो शाखों पर ही चलते चले जाते हैं ।"
शीशम, "ये लोग इतने ही ओछे रहते हैं, ऊँचे नहीं उठते क्यों दादा ? "
बड़ दादा ने कहा, "हमारी - तुम्हारी तरह इनमें जड़ें नहीं होतीं। बढ़ें तो काहे पर ? इससे वे इधर-उधर चलते रहते हैं, ऊपर की ओर बढ़ना उन्हें नहीं आता । बिना जड़ न जाने वे जीते किस तरह हैं ।"
इतने में बबूल, जिसमें हवा साफ छन कर निकल जाती थी, रुकती नहीं थी और जिसके तन पर काँटे थे, बोला, "दादा, श्रो दादा, तुमने बहुत दिन देखे हैं । यह बताओ कि किसी वन को भी देखा है । ये आदमी किसी भयानक वन की बात कर रहे थे । तुमने उस भयावने वन को देखा है ?"
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शीशम ने कहा, "दादा, हाँ, सुना तो मैंने भी था । वह वन क्या होता है ?"
बड़ दादा ने कहा, “सच पूछो तो भाई, इतनी उमर हुई, उस भयावने वन को तो मैंने भी नहीं देखा। सभी जानवर मैंने देखे हैं। शेर, चीता, भालू, हाथी, भेड़िया । पर वन नाम के जानवर को मैंने अब तक नहीं देखा ।”
एक ने कहा, "मालूम होता है वह शेर चीतों से भी डरावना होता है ।"
दादा ने कहा, "डरावना जाने तुम किसे कहते हो । हमारी तो सबसे प्रीति है । "
बबूल ने कहा, "दादा, प्रीति की बात नहीं है। मैं तो अपने