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जैनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग] दीर्घकाल से कुमार बाहुबली अतिशय कठोर तपश्चर्या कर रहे हैं। आपको ज्ञात तो है ?" भगवान् बोले, "हाँ, ज्ञात है।"
"उससे हमारा हृदय काँपता है । आप उन्हें इससे विरक्त करेंगे?"
भगवान् ने कहा, "नहीं। एकनिष्ठा के साथ जो किया जाता है उससे किसी का अपकार नहीं होता।"
लोगों ने पूछा, "किन्तु भगवन् , कुमार बाहुबली को अब तक कैवल्य-सिद्धि क्यों नहीं हो सकी ?"
भगवान् ने कहा, “यह तुम पीछे जानोगे।
भरत राज्य-शासन चला रहे थे । प्रथम चक्रवर्ती भरत के ऐश्वर्य का पार न था। मणि-माणिक-मुक्ता की दीप्ति से उनका परिच्छद जगमग रहता था। उनके नाम का आतङ्क दिग्दिगन्त में छाया था । सब प्रकार के सुख-विलास और आमोद-प्रमोद के साधन उनके संकेत पर प्रस्तुत थे । और वे अपने अखण्ड निष्कण्टक चक्रवर्तित्व का उपभोग कर रहे थे ।
इसको भी वर्ष-के-वर्ष होगये ।
एक दिन भगवान आदिनाथ के पास पहुँचकर भरत ने कहा, "भगवन् , भाई बाहुबली को यह अधिकार मिला कि वह मुझ को छोड़कर और राज्य को छोड़कर स्वाधीन रहें और सत्य को पाएँ । जो मेरे अधिकार में नहीं आता था, जो बाहुबली का होगया था, उस राज्य को लेने को मैं रह गया । मेरे लिए अस्वीकार करने को तनिक भी अवकाश नहीं छोड़ा गया । मुझे शिकायत नहीं है। लेकिन मैं आप से पूछता हूँ, क्या मैं अब दीक्षा नहीं ले सकता ?"