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जैनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग ]
न भरत विशेष उदास । मल्लयुद्ध अन्तिम युद्ध था और उसके. समय प्रजा की उत्सुकता इस भाई-भाई के द्वेषहीन युद्ध में बहुत बढ़ गई थी ।
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मल्लयुद्ध में कुछ देर के बाद बाहुबली ने भरत को दोनों हाथों पर ऊपर उठा लिया । इस समय दर्शकों के प्राण कण्ठ में आ बसे थे । वे प्रतिपल आशंका करने लगे कि चक्रवर्ती भरत अब धरती पर चित्त आ पड़ते हैं । किन्तु बाहुबली ने धीमे-धीमे अपने हाथों को नीचे किया और भरत पृथिवी पर सावधान खड़े दिखाई दिये । तदनन्तर नतशिर होकर बाहुबली ने दोनों हाथों से अपने बड़े भाई के चरण छुए ।
भरत ने भी बाहुबली को अपनी छाती से लगा लिया । कहा, "बाहुबली, विजयी होओ। मुझे तुम पर गर्व है और मैं तुम्हारी विजय पर हर्षित हूँ । तुम सामर्थ्यशाली बनो ।”
बाहुबली ने कहा, "यह आप क्या कहते हैं ? आप ज्येष्ठ हैं, योग्य हैं। और मैं एक क्षण के लिए भी राज्य नहीं चाहता । "
भरत ने कहा, "भाई बाहुबली, वह तुम्हारा है। तुम उसके विजेता हो, उसके पात्र हो । और मैं अपना हृदय दिखा सकूँ तो तुम जानो मैं कितना प्रसन्न हूँ । तुम राजा बनो, मुझे श्रमात्य बनाओ, सेनापति बनाओ, अथवा जो चाहो सेवा लो ।”
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बाहुबली ने हाथ जोड़कर कहा, "भाई, मुझे राज्य की इच्छा नहीं है । इस विषय में आप राज्य- पालन का कर्तव्य मुझ पर न डालें । मैं दीक्षा लेना चाहता हूँ । मुझे राज्य आदि नहीं चाहिए ।" भरत ने बहुत कहा । परन्तु बाहुबली दीक्षा लेकर वन की ओर चले गये । भरत चुपचाप राज्य रक्षा और राजत्व - पालन में लग गये ।