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जेनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग ]
: ३ :
शव बीच में था । लोग रोने को उद्यत थे। युवक डबडबाई आँखों से किनारे खड़ा देखता था ।
गुरु बोले, "रथी अब तक नहीं बनाकर रख सके हो ? लाओ, मुझे दो बाँस-वाँस ।”
वह यह काम करने लगे ।
कवि की इच्छा हुई बाँसुरी को यहाँ तनिक सुबक लेने देते । रथी बनी । कवि ने पहला कन्धा देते हुए कहा, "आओ भाइयो, चलो । यात्रा प्रस्तुत है । "
गुरु ने स्थिर उच्छवास में कहा, "राम नाम सत्य है ।" गूँज गूँजी, "राम नाम सत्य है ।”
: ४ :
चिता की लपटें हार कर बैठने लगीं । अब राख भर रह जायगी ।
गुरु ने कहा, "हम नहा धो डालें । चलें, अपने काम में लगें । " धूप में सन्नाटा खींचे मरघट में युवक सुन्न खड़ा था ।
यमुना चुपचुपायी बहती थी ।
लोग सूने शून्य को देखते थे । शून्य लपटों की झुलस में स्पंदनशील हो उठा ।
कवि ने चाहा - हँसे, गाये, रोये ।
: ५
गुरु लौट चले। कहा, “चलो ।”
"ठहरो" कवि ने कहा, "आओ, अब विराट् के इस श्रातिथ्यप्रांगण में मैं बाँसुरी बजाऊँ । सुनो"