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१८४ जैनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग]
घोसी ने कहा, "मैं आध घण्टा पहले तो दुह चुका हूँ।" हीरासिंह ने कहा, "तुम बंटा लाओ।"
उसके बाद साढ़े तेरह सेर दूध उसके तले से पका तौल कर हीरासिंह ने घोसी को दे दिया। कहा, "यह दूध सेठजी को दे देना।" फिर गौ के गले पर अपना सिर डालकर हीरासिंह बोला, "सुन्दरी ! देख, मेरी ओछी मत कर । तू यहाँ है, मैं दूर हूँ, तो क्या इसमें मुझे सुख है ?"
गौ मुंह झुकाये वैसे ही खड़ी रही।
"देखना सुन्दरिया ! मेरी रुसवाई न करना।" गद्गद् कण्ठ से यह कहकर उसे थपथपाते हुए हीरासिंह चला गया ।
पर गौ अपनी बिथा किससे कहे ? कह नहीं पाती, इसी से सही नहीं जाती। क्या वह हीरासिंह की रुसवाई चाहती है ? उसे सह सकती है ? लेकिन दूध नीचे श्राता ही नहीं, तब क्या करे ? वह तो चढ़-चढ़ जाता है, सूख-सूख जाता है, गौ बेचारी करे तो क्या ? ___ सो फिर शिकायत हो चली। आये दिन बखेड़े खड़े होने लगे। शाम इतना दूध दिया, सबेरे इससे भी कम दिया। कल तो चढ़ा ही गई थी। इतने उनहार-मनुहार किये, बस में ही न आई । गाय है कि बवाल है । जी की एक साँसत ही पाल ली।
सेठ ने कहा, "क्यों हीरासिंह, यह क्या है ?" हीरासिंह ने कहा, "मैं क्या जानता हूँ-" सेठ ने कहा, "क्या यह सरासर धोखा नहीं है ?" हीरासिंह चुप रह गया।
सेठ ने कहा, "ऐसा ही है तो ले जाओ अपनी गाय और रुपये मेरे वापिस करो।"