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एक गो
१८३ बीच में आने-जाने का रास्ता छोड़े हुए, फिर भी उस रास्ते को रोके हुए, यह ड्योढ़ी थी। कुछ देर तो वह इस तरह देखा किया, फिर मुँह मुकाकर हुका गुड़गुड़ाने लगा। अनबूझ भाव से वह इस व्याप्त-विस्तृत शून्य में देखता रह गया ।
लेकिन अगले दिन गड़बड़ उपस्थित हुई । सेठजी ने हीरासिंह को बुला कर कहा, "यह तुम मुझे धोखा तो नहीं देना चाहते ? गाय के नीचे से सबेरे पाँच सेर भी तो दूध नहीं उतरा । शाम को भी यही हाल रहा है । मेरी आँखों में तुम धूल झोंकना चाहते हो ?"
हीरासिंह ने बड़ी कठिनाई से कहा, "मैंने तो पन्द्रह सेर से ऊपर दुह कर आपके सामने दे दिया था।" ___“दे दिया होगा। लेकिन अब क्या बात हो गई ? जो न तुमने उसे कोई दवा खिला दी हो ?"
हीरासिंह का जी दुःख से और ग्लानि से कठिन हो आया । उसने कहा, "दवा मैंने नहीं खिलाई और कोई दवा दूध ज्यादा नहीं निकलवा सकती। इसके आगे और मैं कुछ नहीं जानता।"
सेठजी ने कहा, "तो जाकर अपनी गाय को देखो। अगर दूध नहीं देती, तो क्या मुझे मुफ्त का जुर्माना भुगतना है ?"
हीरासिंह गाय के पास गया। वह उसकी गरदन से लगकर खड़ा हो गया । उसने गाय को चूमा, फिर कहा, "सुन्दरिया, तू मेरी रुसवाई क्यों कराती है ? तेरे बारे में मैं किसी से धोखा करूँगा ?"
गाय ने उसी भाँति मुंह ऊपर उठाया, मानो पूछा, "मुझे कहते हो ? बोलो, मुझे क्या कहते हो ?"
हीरासिंह ने घोसी से कहा, "बंटा लाओ तो।"