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एक गौ
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रार मोल लेकर, उसको फिर वहाँ से खोल कर नहीं ले श्रायगा, इस का भरोसा हीरासिंह को नहीं था। जवाहरसिंह उजड़ ही तो है। सुन्दरिया के मामले में भला वह किसी की सुनने वाला है ? ऐसे नाहक रार के बीज पड़ जायँगे, और क्या ?
पर दुर्भाग्य भी सिर पर से टलता न था । पैसे-पैसे की तंगी होने लगी थी। और तो सब भुगत लिया जाय पर अपने आश्रित जनों की भूख कैसे भुगती जाय ?
एक दिन जवाहरसिंह को बुलाकर कहा, “मैं दिल्ली जाता हूँ । वहाँ बड़ी-बड़ी कोठियाँ हैं, बड़े-बड़े लोग हैं। हमारे गाँव के कितने ही आदमी वहाँ हैं । सो कोई न कोई नौकरी मिल ही जायगी । नहीं तो तुम्हीं सोचो, ऐसे कैसे काम चलेगा ? इतने तुम देख-भाल रखना । वहाँ ठीक होने पर तुम सब लोगों को भी बुला लूँगा ।"
दिल्ली में जाकर एक सेठ के यहाँ चौकीदारी की नौकरी उसे मिल गई । हवेली के बाहर ड्योढ़ी में एक कोठरी रहने को भी मिल गई !
एक रोज सेठ ने हीरासिंह से कहा, "तुम तो हरियाने की तरफ के रहने वाले हो ना । वहाँ की गाय बड़ी अच्छी होती है । हमें दूध की तकलीफ है । उधर की एक अच्छी गाय का बन्दोबस्त हमारे लिए करके दो ।"
हीरासिंह ने पूछा, “कितने दूध की और कितनी कीमत की चाहिए ?”
सेठ ने कहा, "कीमत जो मुनासिब हो देंगे, पर दूध थन के नीचे खूब होना चाहिए । गाय खूब सुन्दर तगड़ी होनी चाहिए ।"
हीरासिंह सुन्दरिया की बात सोचने लगा। उसने कहा, "एक है तो मेरी निगाह में । पर उसका मालिक बेचे तब है ।"