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१७६ जैनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग] अब उनकी उतनी माँग नहीं है । चुनांचे हीरासिंह भी अपने बापदादों के समान जरूरी आदमी अब नहीं रह गया है। हीरासिंह को बहुत-सी बातें बहुत कम समझ में आती हैं। वह आँख फाड़ कर देखना चाहता है कि यह क्या बात है कि उसके घराने का महत्त्व इतना कम रह गया है । अन्त में उसने सोचा कि यह भाग्य है, नहीं तो और क्या ? __उसकी सुन्दरिया गाय डील-डौल में इतनी बड़ी और इतनी तन्दुरुस्त थी कि लोगों को ईर्ष्या होती थी। उसी सुन्दरिया को अब हीरासिंह ठीक-ठीक खाना नहीं जुटा पाता था। इस गाय पर उस गर्व था । बहुत ही मोहब्बत से उसे उसने पाला था। नन्हीं बछिया थी, तब से वह हीरासिंह के यहाँ थी। हीरासिंह को अपनी गरीबी का अपने लिए उतना दुख नहीं था, जितना उस गाय के लिए । जब उसके भी खाने-पीने में तोड़ आने लगी तो हीरासिंह के मन को बड़ी बिथा हुई । क्या वह उसको बेच दे ? उसी गाँव के पटवारी ने दो सौ रुपये उस गाय के लिए लगा दिए थे । दो सौ रुपये थोड़े नहीं होते। लेकिन अव्वल तो सुन्दरिया को हीरासिंह बेचे कैसे ? इसमें उसकी आत्मा दुखती थी। फिर इसी गाँव में रहकर सुन्दरिया दूसरे के यहाँ बँधी रहे और हीरासिंह अपने बाप-दादों के घर में बैठा टुकुर-टुकुर देखा करे, यह हीरासिंह से कैसे सहा जायगा । __उसका बड़ालड़का जवाहरसिंह बड़ा तगड़ा जवान था। उन्नीस वर्ष की उम्र थी, मसे भीगी थीं, पर इस उमर में अपने से ड्यौढ़े को वह कुछ नहीं समझता था । सुन्दरिया गाय को वह मौसी कहा करता था। उसे मानता भी उतना ही था। हीरासिंह के मन में दुर्दिन देखकर कभी गाय के बेचने की बात उठती थी तो जवाहर सिंह के डर से रह जाता था। ऐसा हुआ तो जवाहर डंडा उठाकर,