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१७० जैनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग]
नगर-सेठ बोले, "कन्या का दुःख हमसे देखा नहीं जाता। उसकी माता-" ___ माता सिर झुकाये बैठी थी, उसकी ओर देखते हुए महात्माजी ने कहा, "कन्या के या तुम्हारे पास कुछ भी बचेगा, तो वही तुम्हारी प्रार्थना भगवान् के पास पहुँचने में बाधा हो जायगा।"
माता ने कहा, "महाराज की जो आज्ञा ।"
महात्मा गम्भीर वाणी में बोले, "मुंह की नहीं, दर्द की प्रार्थना उसे मिलती है। दर्दी कुछ पास नहीं रखता। सब फेंक देता है।"
सुनकर नगर-सेठ ने कहा, "महाराज !" संकेत पर शिष्य ने थाल वहीं ला रखा।
महात्मा बोले, "यह ले जाओ। जगत् की आँख की ओट में दो; और धन नहीं, अपने को दो। अपने को बचाना और धन देना अपने को बिगाड़ना है। इससे जाओ, आँसुओं में अपने को दो । प्रभाव सब कहीं है, भूख सब कहीं है। ले जाओ और सब उस ज्वाला में डाल दो। वही है भगवान् का यज्ञ । याद रखना, हाथ देते हों तब मन रोता हो। बिना आँसू दान पाप है। जाओ, कुछ न रखोगे, तो सब पा जाओगे।" ____ कन्या और उसकी माता और पिता के चित की सैंका गई न थी। दीन भाव से बोले, "महाराज!-"
महात्मा बोले, "पाना चाहेगा, सो पछताएगा। पर जाओ, पात्रो और परीक्षा दो।"
सुनकर तीनों प्रणत भाव से चले गये।
अनन्तर कान्चनमाला महात्मा की कुटी में आई और तनिक सिर नवा कर बैठ गयी । उसकी आदत थी कि सबको अपनी ओर