________________
कामना पूर्ति
१७१
I
देखता हुआ पाये । जैसे कुछ पल इस प्रतीक्षा में रही। फिर बोली, "महाराज, पति मुझसे विमुख हैं, मैं क्या करूँ ?”
महात्मा ने कहा, "भगवान् ने तुम्हें रूप दिया । अधिक और क्या तुम्हें सहायक हो सकता है ?"
कान्चनमाला बोली, "रूप आरम्भ में सहायक था । अब तो वही बाधक है !"
महात्मा बोले, "बाधक है उसी को फेंक दो ।"
काञ्चनमाला ने अविश्वास से महात्मा की ओर देखते हुए कहा, "रूप को फेंककर मैं कहाँ रह जाऊँगी महाराज ? पति को खो चुकी हूँ, ऐसे तो अपने को भी खो दूँगी।"
महात्मा ने कहा, "खो सको तो फिर क्या चाहिए ? लेकिन रूप पर विश्वास रख कर अविश्वास क्यों करती हो ?"
"क्या करूँ, महाराज ! पति बिना सब सूना है । इस रूप ने उन्हें अविश्वासी बनाया है ।"
महात्मा गम्भीर हो गये । बोले, “मिला है उसके लिए कृतज्ञ होना सीखो। कृतज्ञ आगे माँगता नहीं, मिले पर झुकता है !"
कान्चनमाला अनाश्वस्त भाव से बोली, "मेरी बिथा हरो, महाराज ! नहीं तो जाने मैं किस मार्ग पर जाऊँगी ।"
महात्मा ने कहा, “जाओ, पति को पाओ। लेकिन परमात्मा के मार्ग में अपने को खोकर जो पाओगी, वही रहेगा। पर जाओ और जानो ।”
इसके कुछ ही दिन बाद महात्मा वहाँ से अपना आसन उठा गये ।
वर्ष होते न होते देखा गया कि महात्मा के प्रसाद से सब ने सब पाया है ।