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कामना-पूर्ति
१६६ क्यों बनाया कि पति-गृह भी मैं मुंह न दिखा सकूँ ? महाराज आशीर्वाद दीजिये कि मैं असुन्दर न रहूँ और पति को पा जाऊँ ।" __ महात्मा बोले, "देह असुन्दर वरदान है। क्योंकि जगत् की आँखें उस पर नहीं जातीं । तुम भाग्यवान् हो माता !"
रूपमती ने कहा, "महाराज, अपने लिये नहीं, पति के लिए रूप चाहती हूँ।"
महात्मा बोले, "पति द्वार है, इष्ट परमात्मा है। सौन्दर्य तो द्वार पर अटकता है।"
रूपमती प्रार्थना के स्वर में बोली, “महाराज, मेरा नारी-जन्म निरर्थक है । पति विमुख हों, तब परमात्मा के सम्मुख मुझसे कैसे हुआ जाएगा ?"
महात्मा बोले, "तुम भी उसी दरबार में अरदास भेजो। जिसका कोई नहीं, कुछ नहीं, उसका वह है रखने वाला यहाँ गँवाता है। सब खो सकोगी ?"
"हाँ, महाराज, पति के लिये क्या नहीं खो सकूँगी। लेकिन..." महात्मा मुस्कराये। शिष्य अब माता-पिता को भी अन्दर ले आया। महात्मा ने उनसे कहा, "इसके लिये तुम सब खो सकते हो ?" नगर-सेठ ने कहा, “महाराज, कितना आपको चाहिये ?"
महात्मा ने कहा, "संख्या नहीं, तोल नहीं, परिमाण नहीं, उतना मुझे चाहिये । मालिक को हिसाब से दोगे? याद नहीं कि तुम बस रोकड़िया हो ?"
नगर-सेठ ने कहा, “महाराज, लाख, दो लाख, दस लाख-"
महात्मा बोले, "अरे, करोड़ों के मोल कन्या की असुन्दरता तुमने पायी है । अब लाख की बात करते हो ?"