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१६८ जनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग]
पण्डित-दम्पति चुप रहे और शिष्य भी कुछ नहीं बोले। तब महात्मा ने आगे कहा, "अंगीभूत नहीं है, वह अपना नहीं है। अंगीकृत को अपना मानना गृहस्थ की मर्यादा है। पर बालक अमानत हैं, सम्पत्ति नहीं । सम्पति परिग्रह है । पाँच वर्ष से ऊपर के बालकों की ममता छोड़ो । अमानत का हिसाब दो, तब ही नया ऋण माँग सकते हो।"
पण्डित ने पूछा, “महाराज, क्या करना होगा ?" महात्मा ने कहा, "तुम जानते हो, भगवद्-अर्पण ।"
इससे समाधान नहीं हुआ। पण्डितानी बोली, “महाराज, कष्ट हमें अर्थ का है । उसका उपाय बताइए।"
महात्मा हँसते हुए बोले, “इस हाथ दो, उस हाथ लो। भगवान् का देने में चूकने से पाने से रहना होगा।”
पण्डितानी बोली, "पहेली मत बुझवाओ, महाराज ! कुछ दया हो तो हमारा सँकट मेटो।" कहकर पण्डितानी वहीं रोने लगी
और पण्डित भी गिड़गिड़ा आये। ___ उन्हें आग्रही देखकर महात्मा बोले, "जो अकेले में देगा, वह सब के बीच पावेगा। लेकिन जाओ, भगवान् देगा और परीक्षा लेगा।" __ शब्दों से नहीं, किन्तु महात्मा की वाणी से दम्पति को बहुत ढाढ़स हुआ और वे दोनों प्रणाम करके चले गये।
अनन्तर रूपमती वहाँ आई। साथ के थाल को आगे सरका कर, उसने माथा धरती से लगाया। शिष्य ने रूमाल थाल पर से हटा दिया। महात्मा मुस्कराये और उसने थाल एक ओर रख दिया।
रूपमती बोली, "महाराज, मुझे सब दिया, तब ऐसा असमर्थ