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१५८ जैनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग] में इस सम्बन्ध में उन्हें एक लेख लिखना था। मौलिक पुरातत्त्व गवेषणात्मक लेखों की आज कल न्यूनता है। उन्होंने चर्चा से पूर्व करमसिंह को उठाकर, बिठाकर, एक ओर से, सामने की ओर, पीठ की ओर आदि-आदि कई ओरों से चित्र लिये। क्योंकि विद्वानों के लेख काल्पनिक नहीं सप्रमाण होते हैं।
करमसिंह ने अपनी ओर से पूछा, "कारखाने मैंने सुने हैं। दूर से उनकी धुएँ वाली चिमनियाँ देखी हैं और अपनी झोंपड़ी की जगह पर दहकती भट्टी पहचान आया हूँ। यह सब क्या है ? और क्यों है ?"
विद्वान् ने पहले प्रश्नकर्ता की भाव-भंगिमा और फिर प्रश्न को कापी में दर्ज किया, फिर कहा, "तुम क्या समझते हो।"
करमसिंह ने कहा, "शास्त्रों में मय दानव के मायापुरी रचनेकी बात है। मुझे तो कुछ वैसा ही-सा मालूम होता है।"
विद्वान् उत्तर से बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने तत्काल इसे नोट किया । फिर हँस कर कहा, “यह इंडस्ट्रियल रिवोल्यूशन है।"
करमसिंह सुन कर हैरानी में देखता रह गया। सोचता था कि उसे बताया जायगा कि वह इतने बड़े नाम की वस्तु क्या है ? किन्तु विद्वान् उसके हतबुद्धि होने में रस ले रहे थे और बीचबीच में उसकी आकृति का वर्णन नोट करते जा रहे थे । अन्त में उसने पूछा कि वह जटिल और वक्र नामधारी वस्तु क्या है ?
विद्वान् ने हँसकर कहा, "वह मय दानव नहीं है । दानव कल्पना-शरीर है। हमारे एंजिन का शरीर लोहे का है।"
करमसिंह ने हर्ष से कहा, "एंजिन, यह तो अपने देवताओं कासा नाम प्रतीत होता है । भट्टी कहीं उसी का पेट तो नहीं है। वह क्या खाता है।"