________________
१५४
जैनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग] इसमें कई वर्ष लग गए । अनन्तर घूमता-घामता वह वापस धरमपुर पहुँचा । पर अपने धरमपुर को वह अब पहचान न सका।
आँखें फाड़-फाड़ कर वह इधर-उधर देखने लगा । दूर-दूर तक खेत नहीं थे और धरती कोयले की राख से काली थी। उसने अपनी झोंपड़ी देखनी चाही और वह बगिया देखनी चाही जहाँ श्रामअमरूद के दो-चार पेड़ उगा रक्खे थे। पर वह किसी तरह अन्दाज़ नहीं कर सका कि यहाँ उसकी जगह कहाँ रही होगी। कई बार इस पक्की सड़क और पक्के मकान की नगरी का चक्कर उसने काटा। अन्त में जहाँ उसने अपनी जगह होने का निश्चय किया, वहाँ देखता है कि लाल-लाल जलती हुई एक भट्टी मौजूद है । आसपास कोयले-वाले जमा हैं और आग मद्धिम होती है तो उसमें डालते जाते हैं। वे भट्टी को बार-बार धधकाये रहते हैं । तो क्या इस भट्टी में ही हमारी झोंपड़ी भी स्वाहा हुई है। उसने पूछा, "क्यों भई, यहाँ अजीत और उसकी बहू रहते थे, वे कहाँ है।"
लोग तेजी से कुछ कर रहे थे, जिस को करमसिंह नहीं समझ सका कि क्या कर रहे हैं। उन्होंने उसकी बात की तरफ ध्यान नहीं दिया । गाँव के सब लोगों को वह जानता था । लेकिन उन में से यहाँ एक भी दिखाई नहीं देता था। कुछ देर बाद देखता क्या है कि महदेवा मौजूद है। उसने उधर ही बढ़कर कहा, “महदेवा, कहो भाई घच्छे तो हो ?" ___ महदेवा की देह से पसीना निकल रहा था। आँखों को बारबार मलता और सुखाता वह हाँफ रहा था । वह बहुत काम में था। करमसिंह ने बिलकुल पास पहुँचकर पुकारा तब उसे चेत हुआ। महदेवा ने पीछे मुड़कर देखा, कहा, "क्या है ?"
करमसिंह ने कहा, "मुझे पहचानते नहीं हो, महदेवा ?"