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धरमपुर का वासी
१५५ महदेवा ने ध्यान किया और बोला, "अरे कक्का ! कहो, कब आये ?" ___ करमसिंह ने कहा, "श्रा ही रहा हूँ। पर अजीत और उसकी बहुरिया कहाँ हैं ?"
महदेवा ने कहा, "साल-भर हुआ तब वे दूसरे कारखाने में थे। अब तो हमें भी पता नहीं है ।"
"कारखाने में !" दोहराता हुआ करमसिंह चुप रह गया।
उसके जमाने में इधर-उधर भटकते मवेशी जिस में बन्द किये जाते थे, उसे काँजी-खाना कहते थे । कारखाना कुछ वैसी ही कोई बात न हो। लेकिन, नहीं उसने हिम्मत से सोचा कि किसी रहने की जगह का नाम होता होगा। अन्त में उसने पूछा, “कारखाना क्या भाई ?" ____ महदेवा ने अचरज में पड़कर कहा, "अजी, कारखाना ! वह कारखाना ही तो होता है । वहाँ बहुत आदमी काम करते हैं । अच्छा कक्का, अब संझा को मिलेंगे। मालिक पूरा तोल के काम रखवा लेता है।"
करमसिंह वहाँ से आगया । गाँव की काया-पलट हो गई थी।
जगह-जगह ऊँची-ऊंची सुर्रियाँ-सी खड़ी थी, जिनमें से धुआँ निकल रहा था । तो क्या वे पोली हैं ? और पोली हैं तो इसलिए कि पेट में काला धुआँ भरे रहें ? यहाँ सब से ऊँची चीज उसे इन्हीं धुआँ फेंकने-वाली सुर्रियों की दिखाई दी। पहले एक मन्दिर था जिसका कलश बहुत ऊँचा दीखता था। कोई कोस-भर से दीख जाता होगा। अब इन सुर्रियों के आगे किसी मन्दिर के कलश की बिसात नहीं है । अव्वल तो मन्दिर वैसे ही कोने-कुचारे में हो गये हैं। उसने पूछा, "क्यों भाई, ये ऊँची-ऊँची सुर्रियाँ क्या हैं ?"