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नीलम देश की राजकन्या
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किन्नरियों ने कहा कि राजकन्या, अब हमारा खेलने का अन्त आ गया दीखता है। जैसा भाग्य | किन्तु राजकन्या, दोष तो हमारा कोई नहीं है।
अब
इस पर राजकन्या ने सब को एक-एक कर अपनी छाती से लगाकर कहा, “नहीं-नहीं सखियो, मैं खूब खेलूँगी, खूब खेलूँगी । कभी-कभी चित्त मेरा बुरा हो आता है। तब तुम यह मत समझो, क्लेश नहीं होता । मन पर उस वक्त बड़ा बोझ रहता है । पर मैं खुल कर खूब खेला करूँगी । सच, खूब खेला करूँगी ।" "अरी अरी राजकन्या, तू कैसी बात करती है ? तू खूब - खूब खेला करेगी, तू ? भली खेलेगी तू ! तेरे भीतर इस पुष्पित आँगन के किनारे से लगा जो आसन बिछा है, और जो वहाँ एक की बाट जोही जा रही है, वह क्या झूठ है ? तू जानती है वही तेरा सच है । फिर क्या तू खेल में उसे पूरी तरह बिखेर देकर निबट रहना चाहती है ? पगली, यह चाहती है तो करके देख | पर..."
और राजकन्या क्या सचमुच खूब खूब खेलती रह सकी ? पर खिलौनों से कब तक कोई अपने को बहला सकता है ?
अगले दिन कहाँ गई वे किन्नरियाँ ! कहाँ गईं वे अप्सराएँ ! कहाँ गईं गन्धर्व - बालाएँ ? पुखराज के उस बड़े-बड़े महल के बड़ेबड़े श्राँगनों और कोष्ठों में राजकन्या भाग-भाग कर देख आईकहाँ गई वे सब सखियाँ ? कहाँ गई वे मन की परियाँ ! कहीं भी तो कोई नहीं दीखता । क्या वे सपना थीं ? माया थीं ? पन्नों का महल वह देख आई, हीरे का भी देख आई । कहीं कोई नहीं, कहीं कोई नहीं । यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ, भटककर उसने