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१४६ जैनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग]
क्या असावधानी हुई ? क्या उन्होंने राजकन्या के मन को कभी एक छन को भी अवकाश दिया है ? अपने प्रभु वैभवशाली इन्द्र की आज्ञा पर जो राजकन्या की सेवा में नियोजित हैं, सो क्या उन्होंने अपने कर्तव्य में तनिक भी त्रुटि की है ? फिर यह राजकन्या में कैसे लक्षण दीखने लगे हैं ? और वे किन्नरी-बालाएँ अत्यधिक तत्परता से राजकन्या के जी-बहलाव में लग पड़ी ।
बोली, "ाो राजकन्या, खेलें।"
राजकन्या ने फीकी मुस्कराहट से कहा, "खेलोगी ? अच्छा खेलो।"
किन्नरियाँ बोली, "राजकन्या, तुम यह कैसे बोलती हो ? पहले हम से ऐसे पराये भाव से नहीं बोलती थीं । तुम्हारा मन कैसा हो गया है ? हम से उदास क्यों रहती हो ?"
राजकन्या ने कहा, "नहीं नहीं, सखियों, मैं कहती तो हूँ, आओ खेलें।"
किन्नरियों ने विषण्ण भाव से कहा, "राजकन्या, हम जानती हैं, तुम्हारा चित्त हम से उदास है। हम से ऐसी क्या भूल हुई है ?"
राजकन्या उन सब के गले मिल-मिल कर कहने लगी, "नहीं नहीं सखियो, ऐसी बात मत कहो। हम सब बचपन की संगिनी हैं। तुम्हारे बिना मैं क्या हूँ ? चित्त कभी उदास हो जाता है, सो जाने क्यों ? पर मैं तुम लोगों से अलग नहीं हूँ, तुम्हारी हूँ।"
किन्नरियों ने कहा, "तुम अब हमारी नहीं रह गई हो राजकन्या, तुम अकेली रहती जा रही हो।"
"अकेली! अकेलापन तो हाँ, मुझे कुछ-कुछ लगता है। मैं क्या करूँ ? पर अब मैं ऐसी नहीं रहूँगी। अकेलापन मुझ से सहा नहीं जाता।"