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नीलम देश की राजकन्या
१४५ आप ही आप पुष्पित क्यों हो उठता है ? आयगा ही यदि कोई नहीं अपने पग-बाप से उसे कँपाता हुआ,-अपने निक्षेप से उस कम्पन को मिटाता हुआ, तो क्यों मैं उस अपने वक्ष को रोज-रोज आँसुओं से धोया करती हूँ. ? क्यों है यह ? क्या सब व्यर्थ ? सब झूठ ? किन्तु नहीं है व्यर्थ । नहीं है झूठ । किसी क्षण भी कण्टकित हो उठने वाली मेरी पुष्पित देह मेरी प्रतीक्षा की साक्षी है। और वह प्रतीक्षा ऐसी सत्य है कि मैं कुछ भी और नहीं जानती। इस ओर यह सत्य है, तब उधर प्रति-सत्य भी है। वह है कैसे नहीं जो
आयगा, देखेगा और जिसके दृष्टि-स्पर्श से ही मैं जान लूंगी कि मैं नहीं हूँ, मैं कभी नहीं थी-सदा वही था, वही है और मैं उसी में हूँ। जो आयगा और मेरे सब-कुछ को कुचल देगा। कहेगा, "अब तक तू भूल थी। अब मेरी होकर तू सच हो। तु यह अलग कौन है ? तू मुझ में हो।" ऐसा जो है वह है, वह है। मेरा अगुअणु कहता है कि वह है। वही है, मैं नहीं हूँ।
प्रासाद अप्सराओं और किन्नरी-कन्याओं से उद्यान बना रहता है, हरियाला, रङ्गीन और जगमग । राजकन्या की प्रसाधनासेवा ही उन सेविकाओं का काम है। और वे ऐसी हैं कि निष्णात । उनकी विनोद-लीलाओं का पार नहीं। राजकन्या के चारों ओर पुष्पहार के समान वे ऐसी इथीं-गुथीं रहती हैं कि अवकाश कहीं से भी सन्धि पाकर राजकन्या के पास नहीं आ सके। क्या पता, उस अवकाश-सन्धि में से फिर कोई प्रश्न, कोई प्रभाव, कोई अवसाद ही झाँकने लग जाय ?
पर एक अभाव तो झाँकने लगा ही। बाहर से नहीं, वह तो भीतर से ही झाँक उठा। राजकन्या कुछ चाहने लगी,-कुछ वह कि जाने क्या ! किन्नरी-कन्याएँ यह देख सोच में पड़ गई। उनसे