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जैनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग ]
दिया है। मैं उतने के योग्य नहीं हूँ । बस, तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ, अकेला छोड़ दो ।"
मुझे
किन्नरियाँ सुन कर खिलखिला कर हँस पड़तीं हैं, कोई वेणी में फूल खोस देती है, कोई राजकन्या की देह पर पराग बखेर देती है। कहतीं हैं, “सखि ! हम को दुत्कारो मत। राजकुमार आएँगे, तब हम अपने आप चली जाएँगी ।" यह कहकर वे फिर खिलखिला कर हँस पड़तीं हैं ।
राजकन्या कहती है, "कैसे राजकुमार ! कौन राजकुमार ? तुम मेरी बैरिन क्यों बनी हो ?
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इस पर वे किन्नरी बालाएँ और भी खिलखिल हँसती हुई कहती "कोई राजकुमार तो आते ही होंगे। नहीं तो हमने क्या बिगाड़ा है कि हमें झिड़कती हो ? पर सखि जी, यह नीलम का द्वीप है । बीच में समुन्दर सात हैं, तब धरती आती है। यहाँ तक तो कोई भी राजकुमार नहीं आ सकते हैं। यहाँ का यही नियम है । "
राजकन्या यह सुनकर वहाँ से चल देती है । कुछ नहीं बोलती, नहीं बोलती । अप्सरा - किन्नरियों की खिल-खिलाहट भी उसके पीछे चलती है । तब राजकन्या हठात् सोचती है, सब झूठ है । पर सब झूठ है ?.......
तो यह भीतर प्रतीक्षा कैसी है ? अभिषेक नहीं होना है तो रस इकट्ठा होकर मन को उभार की पीड़ा क्यों दे रहा है ? जब किसी को भी आना नहीं है तो भीतर प्रतिक्षण यह निमन्त्रण किस का ध्वनित हो रहा है ? क्या किसी का भी नहीं ? आँगन पुष्पित प्रतीक्षमाण है, रोज-रोज प्रातः - सायं मैं उसे धो देती हूँ, आसन बछा देती हूँ | क्या उस आँगन पर चलकर आसन पर अधिकार जमाने वाला सचमुच वह "कोई " नहीं आने वाला है ? तब आँगन