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१४८ जैनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग] देखा, कहीं कोई नहीं, कहीं कोई नहीं । फूल हैं तो फीके हैं । पराग है तो बिखरा है । जो है, सूना है। ___ "अयि, तुम कहाँ गई हो सखियो? मुझे छोड़ तुम कहाँ गई?" दूर-पास उसका प्रश्न टकराने लगा, “तुम सञ्ची नहीं थीं क्या सखियो ? फिर मुझे छोड़ क्यों गई ?" और वह उस टकराहट के जवाब में भीतर मानो ध्वनित-प्रतिध्वनित होता हुआ सम्बोधन भी सुनने लगी, "श्रो राजकन्या, तुम अकेली कब नहीं थीं जो अब अकेली न रहो ? हमसे तुम जब तक बहलीं, तब तक हम थीं। तुमने अपना अकेलापन सम्भाला और हम जिस लायक थीं उस लायक रह गई । राजकन्या, तुम्हारा अकेलापन तुम्हारा है। इसे वही लेगा जो इसके लिए है।" ___ राजकन्या कहना चाहने लगी, “नहीं नहीं नहीं, अब मैं अकेली नहीं रहूँगी, तुम सब आ जाओ। मैं बस अब खेलती रहूँगी, खेलती रहूँगी।" ___ पर अपने ही उत्तर में वह सुनने लगी “यह झूठ है, राजकन्या ! तू वह नहीं है । तू खेल नहीं है । तू उनसे अकेली है, यद्यपि अन्त तक अकेलापन छल है।"
पल बीते, दिन बीते, मास बीते । राजकन्या पुखराज और पन्ने और हीरे के अपने महलों के बड़े-बड़े आँगन और कोष्ठों में घूम-घूमकर परखने लगी कि वह एक है, अकेली है। कहीं कोई नहीं है, कहीं कोई नहीं है। महल हैं जो जितने बड़े हैं उतने ही वीरान हैं। हवा उनमें से साँय-साँय करती हुई निकल जाती है। समुन्दर का जल सीढ़ियों पर पछाड़ खाता रहता है। पक्षी आकर