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जैनेन्द्र की कहानियाँ [ तृतीय भाग ]
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पहुँचना होगा। गहन से गहन स्थान पर गये जहाँ प्रकृति का निभृत सौंदर्य स्पृष्ट पड़ा था । चित्त को उस से आह्लाद हुआ । नदी - निर्भर, गिरि-गह्वर, लता - कुञ्ज, उजली धूप और खिलती सुषमा, गाते पक्षी और भूमते वृक्ष इन सबसे चित्त पुलकित हुआ। पर क्या प्यास बुझी ? क्षण-भर को वह भूल भले गई हो, बुझने के विरुद्ध तो वह तीव्र ही होती चली गई ।
केवल प्रकृति में समाधान न था । उसके आस्वाद में रस था, पर छल भी था ।
ऐसे वह चलते गए, चलते गए। भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, आधिव्याधि, आपदा-विपदा, जो मिले अपना प्रसाद मान कर भोगते गए और चलते गए । हिसाब तो बेबाक़ करना ही होगा । जाकर बही-खाता जो वहाँ दिखाना है । अतुल विलास का साधन जो उन्होंने अपने चारों और जुटाया था, उसका कम मूल्य तो नहीं था । वही पाई-पाई इस पर्यटन में चुका डालना होगा । मानो समय कम है और चुकाना बहुत है । कुछ इस भाव से जंगल से जंगल और पहाड़ से पहाड़ वह भटकने लगे ।
आखिर काया क्षीण हो चली। चलने-फिरने का दम टूटने लगा । तट अब निकट आया । तट के पार चलने को यान मृत्यु ही है । मृत्यु में ही मनुष्य का अहंकार निःशेप होता है । इसी से मनुष्य का कोई अनुमान, कोई कल्पना उस तट के पार टोह लेने जाकर बाकी नहीं बच सकी। नोन की पुड़िया समुद्र में क्या खो न जायगी ।
अन्त में पहाड़ से उतर कर वह मैदान में आए और नदी-तीर के पास वृक्षों के झुरमुट में एक परित्यक्त स्थान पर उन्होंने विश्राम कर लिया ।