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उपलब्धि
१३५ "नहीं, मुझे क्षमा करो!"
"सुनो, उस रोज धन की आवश्यकता प्रकट करके यह न मानना कि तुमने भूल की । मन की बात के मुंह पर आने में भूल नहीं है। दुनिया में इतना कहकर क्या सच-मुच तुम यह सीखी हो कि धन व्यर्थ है ? नहीं ! तुम इतनी समर्थ हो कि भावावेग में नहीं बहोगी। श्रीवर अपनी फिक्र करेगा कि तुम्हारी ? अरे, तुम्हारा पति तुम्हारी फिक्र नहीं कर रहा है। सच, यहाँ कौन किसका है ! धन पास रहे तो काम तो आता है। चाभियाँ और कागज सम्हाल लेना । सब ठीक कर दिया है। कोठी यह तुम्हारी
पत्नी आँसू डालकर रोने लगी। "मुझे कुछ नहीं चाहिए। पर तुम कहाँ जा रहे हो ?" __ "नहीं चाहिए सही। पर संसार चलाया तो उसका ऋण भी तो चुकाना है। सांसारिक कर्तव्य यहाँ अधूरा छोड़कर जाने से आगे भी मैं क्या पाऊँगा । उसकी पूर्ति तो मेरे हिस्से का काम है। मेरे कर्त्तव्य से तो मुझे तुम च्युत नहीं होने दोगी । उठो, वह मेरा दान नहीं, स्वयं मैं हूँ।"
सारांश, होनहार रुका नहीं और जिनराजदास सब छोड़ परिभ्रमण को निकल पड़े।
बन-बन घूमे । पर्वत छाने । गुफाओं में रहे । साधु-संग किया। पीड़ा सही । तत्वज्ञों कीशरण गही। सब झेला, पर प्यास बुझाना तो क्या, उल्टे बढ़ती गई।
दूर से पहाड़ काली पाँत से दीखते तो उत्साह होता कि वहीं