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जैनेन्द्र की कहानियां तृतीय भाग] बात नहीं कर सकता। मेरी बुद्धि खो गई। वह डूब गई। हाँ, मैंने ही तुम्हें अब तक विज्ञान सिखाया है। मैंने कहा है कि वैज्ञानिक बुद्धि रखो। अब भी कहता हूँ। अपनी वल्दियत भगवान् को लिखाने चल पड़ा हूँ, यह मत समझना । लेकिन दिन आयगा कि तुम भी समझोगे। तुम अपने को संसार को देना चाहोगे और पाओगे कि नहीं दे पाते हो। तब तुम अपने आप को लेकर बेचैन हो उठोगे कि कहाँ जाकर किस की गोद में उसे उड़ेलो । तब भगवान की गोद ही तुम्हारे लिए रह जायगी। पर ये दिन मेरे भगवान् से छीन कर तुम मुझ से ही छीन लोगे । ये तो मालिक के हैं। वह सब का मालिक है और उसे खोज निकालने के लिए सब हैं। नहीं समझे ? जाने दो, छोड़ो।" ___उस समय बात ऐसे बल पर आ गई थी कि शब्द बेकाम थे। वृद्ध के अन्दर की अमोघता शब्दों के पार होकर उन तीनों ने पहचानी । उसके आगे नत ही हुआ जा सकता है, और कुछ सम्भव ही नहीं है । तीनों सुन कर चुप हो रहे।
सहसा उस अवसन्नता को भंग कर के पिता ने युवकों को कहा, "तुम जा सकते हो।"
उनके जाने पर तनिक ठहर कर पत्नी से कहा, "बताओ अब मुझे क्या करना है ?"
"मुझे छोड़ जाओगे ?" "साथ कोई गया है ?" "तुम मुझे धन देना चाहते हो । मुझे नहीं चाहिए।" "नहीं चाहिए तो अच्छा है। पर मैं जानता हूँ कि चाहिए।" "मेरा अपमान न करो।" "धन होने पर किसी क्षण फेंका तो वह जा सकता है।"