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उपलब्धि
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राह में एक कुत्ता उनके साथ हो लिया था। उसे घायल पड़ा हुआ देख उन्होंने कुछ उपचार किया और स्वस्थ होकर वह इन्हें न छोड़ सका । इन्होंने भी उस बारे में विशेष ध्यान नहीं दिया । खाने को जो पाते उसमें कुत्ते का साझा भी मानते और उससे अकेले में बातचीत भी किया करते । कुत्ते के लक्ष्य से उन्होंने आविष्कार किया था कि गम्भीर आदान-प्रदान में भाषा का माध्यम बीच में न होने के कारण अपने से ऊपर जाति के मानव का प्रेम चिरस्थायी रहता है।
इधर दैहिक असमर्थता से अधिक मानसिक तन्मयता के कारण कोई दो रोज़ से वह खाने के प्रबन्ध से उदासीन हो गए हैं। उनका मन, प्राण भीतर की प्यास से बहुत कण्टकित हो उठा है। अपनी सुध उन्हें बिसर गई है, उठने-बैठने, सोने-जागने, खाने-पीने का भी ध्यान उन्हें नहीं रह गया है । देर-देर तक शून्य में टकटकी बाँध कर देखते रह जाते हैं । वहाँ से निगाह हटती है तो उन्हें यह पाकर हैरानी होती है कि उनकी आँखों से आँसू गिर रहे थे। ___ एक बार इस तरह एकटक निहारते-निहारते उनके मुंह से निकला, "अरे कितना भरमायगा ! अब कहीं न जाऊँगा । मौत जिसे कहते हैं, जान गया हूँ, वह तेरा ही हाथ है। श्री छलिया, तू अँधेरा बनकर इसी से न आता है कि आँखें तुझे न पहिचानें। पर ले मैं पा गया । पर कहाँ ?..'तू कहाँ है ?" । ___ रह रह कर वह इसी तरह पूछ उठते, “तू क्या है ? कहाँ है ?" "अरे, बोल तो सही कि तू है।" बीच में कभी हंस रहते । कभी रो पड़ते । इसके बाद यह भी अवस्था उनकी न रही कि कुछ प्रश्न बनकर मुँह से उनसे अलग हो सके। मानों अपनी समग्रता में वह