________________
लाल सरोवर "
११७
एक काम करो। जहाँ कहीं वह जाय, उसके पीछे-पीछे जाया करो
और अशर्तियाँ उठा लिया करो। कोशिश यह करना कि उसको या किसी और को पता न चले। बात यह है कि यदि उसको पता चलेगा तो उसमें अहंकार का उदय हो सकता है । अहंकार से फिर साधना नष्ट हो जाती है। इसलिए शिष्य का भला इसमें ही है कि उसको अपनी सफलता का पता न चले ।"
गाँव का वह जवान, जिसका नाम मुमेर था, इस बात को सुनकर बहुत प्रभावित हुआ और बड़ा खुश हुश्रा । वह वैरागी के साथ रहता और रास्ते में जितनी मोहरें बनतीं सब उठा लेता। पहले रोज़ उसने सब मोहरें अपने गुरु जी को दे दी। लेकिन एक बचाकर रख ली। सोचा, “अपने घर में माँ को दिखाऊँगा और देखकर वह अचरज में आँख फाड़ती रह जायगी। तब मझे कितनी खुशी होगी। वह पूछेगी, कहाँ से आई ?" मैं कुछ उत्तर नहीं दूंगा।
आखिर सोचेगी कि मैं कहीं से चुराकर तो नहीं ले पाया ? लेकिन तब भी मैं उत्तर नहीं दूंगा। वह भला क्या जान सकती है। मुझे साक्षात् देवता-स्वरूप गुरु मिल गए हैं। तब भला सोने की मोहरों की क्या बात है। . . .
लेकिन धीरे-धीरे सुमेर ने देखा कि गुरु जी पूरा-पूरा हिसाब लेते हैं कि, 'बताओ चेला कितनी दूर गया था, वह जगह कितने गज़ है, उसमें कितने कदम होंगे, इत्यादि ।' इस तरह सोने की मोहर का महत्त्व सुमेर के दिल में बढ़ने लगा और गुरु जी का महत्त्व कुछ कम होने लगा । तब उसने कुछ मोहरें अपने पास रखनी शुरू कर दीं। उन्हें ले जाकर चुपके से एक घड़े के अन्दर छिपा देता था और किसी से नहीं कहता था।...